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________________ नैष्ठिकाचार ७१ कुगुरु और उसके वन्दक ___(वसन्ततिलका) शिष्यस्य तस्य कुगुरोश्च कुमार्गनेतुः सेवा स्तुतिश्च सुजनैर्न कदापि कार्या । स्वानन्दसौख्यजनकस्य सदा सुसेवा शिष्यस्य चास्य सुगुरोः सुखदा हि कार्या।।४१।। शिष्यस्येत्यादिः- कुमार्गनेतुः संसारहेतु मिथ्यादर्शनादिमार्गोपदेष्टुः कुगुरोः तस्य शिष्यस्य च सुजनैः सेवा स्तुतिश्च कदापि न कार्या। किन्तु स्वानंदसौख्यजनकस्य सुगुरोः अस्य शिष्यस्य च सुखदा सुसेवा सदा कार्या। तात्पर्यमेतत् स्वयं विषयाणामभिलाषी लोभादिकषायवशित्वेनानेकारम्भसंरंभभारेणाकुलः कामक्रोधादिभिर्विजितश्च पुरुषः स्वयं धर्ममार्गपराङ्मुखः सन् अन्यानपि स्वच्छन्दानुवर्तिनश्शिष्यान् नानादुःखसमीकीर्णे संसारकानने परिभ्रमन्परिभ्रामयति अतः स्वहितमन्विच्छद्भिर्न कदापि तेषां कुगुरूणां तच्छिष्यानां च सेवा स्तुतिः प्रशंसादिकं वा कार्यम् । स्वात्मसुखाभिलाषिणसंसारमार्गपराङ्मुखास्सन्ति सुगुरुवः, येषामस्तंगतो विषयाभिलाषः, गृहत्यागिनम्ते वसन्ति भीमकानने स्वात्मचिन्तनाय, निःपरिग्रहाः नग्नशरीराः निर्मानिनः क्रोधकामादिभिस्तु दूरत एव परिहताः शीलेशाः पाणिपुटाहारिणः परमदयालवः परोपकारकरणव्यापाराः। तेषाम् सुगुरूणां तच्छिष्याणां तत्सेवकानां तु सेवा-स्तुतिः प्रशंसादिकम् वन्दनादिकञ्च सदैव स्वहितैषिभिः कार्यम् । एवञ्च करणे स्वात्मोत्त्थं परमनिर्वाणसुखं परिप्राप्नुवन्ति भक्ताः।४१। ___ पांचों इन्द्रियों की अभिलाषाओं के दास, आत्मबलहीन, लोभादिकषाय के वशीभूत अनेक आरम्भ और परिग्रह के भार से दबे हुए, काम-क्रोधादि दुर्गुणों के द्वारा पराजित अपने को गुरु माननेवाले अनेक पापी स्वयं संसार के दुःखों को भोगते हैं और अपने अनुयायी शिष्यों को भी संसार चक्र में परिभ्रमण कराते हैं। अतएव ऐसे कुगुरुओं की और उनके भक्तजनों की सेवा स्तुति प्रशंसा या वन्दनादिक कदापि नहीं करनी चाहिए। किन्तु स्वात्मसुख के अभिलाषी संसार के दुःखमय मार्ग से विमुख जो सुगुरु हैं जिनकी विषयाभिलाषा नष्ट हो चुकी है, जो गृहत्यागकर स्वात्मचिन्तन मात्र के लिए भयंकर वनों में निवास करते है, जो स्वयं ही परिग्रह से दूर, नग्नशरीरमात्र से भी मोह न रखनेवाले, मान से रहित, कामक्रोधादि दुर्गुणों से परित्यक्त, शील के भण्डार, गृहस्थ के द्वारा भक्तिपूर्वक दिए हुए रूखे-सूखे अन्न को अपने हस्तपुट में रखकर ही खड़े-खड़े एकबार निर्दोष आहार ग्रहण करनेवाले, परमदयालु, परोपकार करना ही जिनके जीवन का एकमात्र व्यापार है ऐसे परम वीतरागी महापुरुष 'सुगुरु' हैं। जो व्यक्ति संसार के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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