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________________ ७० श्रावकधर्मप्रदीप कुशास्त्र और उसके पाठक (वसन्ततिलका) अन्यागमस्य खलु तस्य कुपाठकस्य .. ह्येकान्तपक्षकलितस्य भवप्रदस्य । सङ्गं विहाय जिनशास्त्रसुपाठकस्य कार्यो निजात्मसुखदस्य सदैव सङ्गः।।४०।। अन्यागमस्येत्यादिः- एकान्तपक्षकलितस्य तत्त्वं नित्यमेव अनित्यमेवेति एकान्तपक्षसमर्थकस्य अतएव भवप्रदस्य संसारवर्धकरस्य अन्यागमस्य न्यायागमविरुद्धतत्त्वोपदेशकस्य अन्यैः कुवादिभिः प्रणीतागमस्य तथा तस्य कुपाठकस्य सङ्गं विहाय परित्यज्य जिनशास्त्रसुपाठकस्य सच्छास्त्रस्य तथा तत्पाठकस्य सङ्गः सदा एवं कार्यः यतो निजात्मसुखं समुत्पद्यते। अनेकान्तात्मकं खलु वस्तुनो रूपं प्रत्यक्षतः प्रतीतं तथापि सदसद्रूपेण नित्यानित्यरूपेण वा एकान्तपक्षग्रहणं भवदुःखप्रदमस्ति। अतोऽसच्छास्त्रस्य तत्पाठकस्य च सङ्गं विहाय सर्वज्ञवीतरागोपदिष्टस्य आगमस्य तत्पाठकस्य वा वन्दनादिकं कर्तव्यम् ।४०। ___ इस संसारिक जीवन में सदुपदेश ही आधारभूत या शरणभूत है। जीवन के सुधार के लिए या उसे समुन्नत बनाने के लिए उपदेश प्रभावपूर्ण कार्य करते हैं, यदि वे उपदेश यथार्थ हों। उपदेश की यथार्थता वक्ता की प्रामाणिकता से सम्बन्धित है। यदि वक्ता श्रेष्ठ गुणवान् है तो उसका उपदेश भी उपयोगी होगा और यदि वक्ता श्रेष्ठ गुणवान् नहीं है, स्वयं दोषी है, आत्मबल हीन है, तो उसका उपदेश जीवन को समुन्नत न बना सकेगा। ऐसे उपदेश को ही 'कुशास्त्र' या “कुआगम” कहा है। इन कुशास्त्रों में जो वस्तुतत्त्व वर्णित है वह एकान्तपक्ष से दूषित है। अतः वे अतत्त्वप्ररूपक हैं। वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है और जैसा वस्तु का स्वरूप है वेसा ही प्रतिपादन करनेवाला आगम समीचीन शास्त्र है। सत्शास्त्र का उपदेश कल्याणकारक है। असत् तत्त्व के प्ररूपक ग्रंथ असत् शास्त्र हैं। वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने से सुख या सुख के मार्ग की प्राप्ति होती है और मिथ्या या विपरीत ज्ञान से जीव मार्ग भ्रष्ट होकर दुःख या दुःख के मार्ग को प्राप्त हो जाता है। अतएव एकान्तपक्ष ग्रसित मिथ्याशास्त्र और उसके पाठकों से दूर रहकर आत्मा के शाश्वतिक सुख की प्राप्ति के लिए अनेकान्त प्रतिपादक जैन शास्त्रों का पठन तथा उसके सुपाठकों की संगति वन्दनादिक ही करनी चाहिए।४०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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