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________________ श्रावकधर्मप्रदीप दुःखों से भयभीत हैं, अनादिकाल की परम्परा द्वारा प्राप्त जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि अनिवार्य तथा विषयाभिलाषा, ईर्षा, द्वेष, दम्भ, कलह और वैर आदि स्वकृत महान् दुःखों से त्रस्त हैं और इनको दूर करना चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि कुगुरु और उसके भक्तों का जो कि इन दुःखों में पगे हैं और इन दुःखों के मार्ग में ही चल रहे हैं संग त्यागकर सुगुरु और उनके भक्त शिष्यादिकों की संगति करें । “सुगुरु” परमदयालु हैं, प्राणिमात्र पर उनकी अनुपम दया है, वे अपनी सहजवृत्ति से प्राणियों के कल्याण की कामना करते हैं, वे उस कामना के बदले में तुमसे या किसी से कुछ भी नहीं चाहते। न वे धन चाहते हैं, न सेवा; न मान, न कीर्ति और न प्रशंसा। इस परोपकारवृत्ति पर कोई कृतघ्न यदि उन्हें गाली दे, मारे या बध - बन्धनादि उपसर्ग भी करे तो भी वे अपने चित्त में उद्विग्न नहीं होते, उस कृतघ्न पर क्रोधित नहीं होते, उसे शाप नहीं देते, उसे सद्बुद्धि आये ऐसी ही अभिलाषा रखते हैं। ऐसे परम सुगुरु की तथा उन जैसे ही उनके भक्तों की सेवा - स्तुति प्रशंसादि तथा अनुकरण सदा करनी चाहिए, जिससे स्वात्मकल्याण हो । ४१ । इति षडनायतनस्वरूपम् । ७२ सम्यक्त्व के २५ दोषों में मददोषका निरूपण । प्रश्नः - भो ! ज्ञानं प्राप्य किं कार्यं वद मे सिद्धये गुरो । हे गुरु! ज्ञान प्राप्त करके स्वात्मसिद्धि के लिए और क्या कर्तव्य है ? कहिए (वसन्ततिलका) विज्ञानदानत इतीह भवेद्विवेक स्तद्बोधतो निजपदे स्थितिरेव ते स्यात् । ज्ञानादिदानमपि तत्र सदैव कार्यं Jain Education International कार्यो मदो भयकरो भवदो न बद्ध्वा ।। ४२ ।। विज्ञानदानत इत्यादिः - सुगमम् । भावस्त्वयम् - ज्ञानं तु स्वात्मधनम् । तल्लक्षणो जीवः । जीवमात्रे केवलज्ञानशाक्तिर्विद्यते । ज्ञानावरणादिकर्मपराभूतत्वादेव मन्दज्ञानिनो दृश्यन्ते जीवाः, स्वस्वज्ञानावरणक्षयोपमविजृंभितज्ञानमात्राराधकास्सन्ति ते। स्वात्मावबोधकृतां विवेकिनां न कदापि ज्ञानादीनामहङ्कारो भवति। विज्ञानदानतस्तु तेषां विवेक एवोपजायते, विवेकस्तु तेषां स्वात्मपदे एव स्थितिर्भवति न तु मदादिषु दुर्गुणेषु । मदादयस्तु स्वात्मविकारास्सन्ति । प्राणिमात्रे यदापूर्णज्ञानशक्तिर्विद्यते, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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