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________________ (६) श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन पद्मप्रभः पद्मपलाशलेश्यः पद्मालयालिङ्गितचारुमूर्तिः । बभौ भवान् भव्यपयोरुहाणां पद्माकराणामिव पद्मबन्धुः ॥१॥ सामान्यार्थ-श्रीपद्मप्रभ भगवान् पद्मपत्रके समान लेश्यावाले हैं तथा उनकी सुन्दरमूर्ति पद्मालय (लक्ष्मी) से आलिंगित है । हे पद्मप्रभ जिन ! आप भव्यरूप कमलोंके विकासके लिए उसी प्रकार सुशोभित हुए थे जिस प्रकार कमलोंके विकासके लिए सूर्य सुशोभित होता है । विशेषार्थ-षष्ठ तीर्थङ्करका पद्मप्रभ यह नाम सार्थक है । पद्मप्रभका अर्थ है-पद्मके समान है प्रभा (शरीरकी कान्ति) जिनकी। वे पद्मपत्रके समान द्रव्य लेश्याके धारक हैं । अर्थात् उनके शरीरका वर्ण कमलपत्रके समान लाल है । उनकी आत्मरूप मूर्ति और शरीररूप मूर्ति दोनों ही अतीव सुन्दर और मनमोहक हैं। उनकी आत्मरूप मूर्ति अनन्तज्ञानादि अन्तरंग लक्ष्मीसे आलिंगित है तथा रागादि विकारोंसे रहित होनेके कारण अत्यन्त निर्मल है। इसी प्रकार उनकी शरीररूप मूर्ति श्वेत रुधिर, निःस्वेदत्व (पसीना रहित होना) आदि बाह्य लक्ष्मीसे आलिंगित है तथा सामुद्रिक शास्त्रमें वर्णित समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित है । श्री पद्मप्रभ जिनने मोक्षमार्गके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंका उसी प्रकार विकास किया था जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाशके द्वारा कमलोंका विकास करता है। भव्य जीवोंके विकासका अर्थ है-आत्मोन्नतिके मार्ग पर चलकर अनन्तज्ञानादिरूप लक्ष्मीको प्राप्त करना। श्री पद्मप्रभ जिनने हितोपदेशके द्वारा भव्य जीवोंका विकास अथवा कल्याण किया था। बभार पद्मां च सरस्वती च भवान् पुरस्तात् प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समनशोभा। सर्वज्ञलक्ष्मीज्वलितां विमुक्तः ॥२॥ सामान्यार्थ-हे पद्मप्रभ जिन ! आपने अर्हन्त अवस्थासे पहले लक्ष्मी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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