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________________ ५७ श्री सुमति जिन स्तवन सामान्यार्थ-विधि और निषेध ये दोनों कथंचित् इष्ट हैं, सर्वथा नहीं । विवक्षासे उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है । सुमतिनाथ जिनकी तत्त्व 'प्रणयन की यह पद्धति है। हे नाथ ! आपकी स्तुति करनेवाले मुझमें मतिका उत्कर्ष हो । यही मेरी भावना है । विशेषार्थ-विधान करनेका नाम विधि है और निषेध करने का नाम निषेध है। जैसे घट घट है' ऐसा कथन विधि है और घट ‘पट नहीं है' ऐसा कथन निषेध है । नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी दो धर्मोंमेंसे प्रथम धर्म विधि और उसका विरोधी धर्म निषेध कहा जाता है। यहाँ जो प्रकरण चल रहा है उसमें नित्यत्व विधि है और उसका प्रतिपक्षी अनित्यत्व निषेध है। विधि और निषेध ये दोनों किसी अपेक्षासे होते हैं, सर्वथा नहीं। जीवादि पदार्थ द्रव्यको अपेक्षासे नित्य है और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। न तो कोई पदार्थ सर्वथा नित्य है और न कोई पदार्थ सर्वथा अनित्य है । विवक्षाके कारण उन दोनों धर्मों से एक मुख्य होता है और दूसरा गौण होता है । वक्ताकी इच्छाको विवक्षा कहते हैं। वक्ताकी दृष्टि जब द्रव्यके प्रतिपादन पर होती है उस समय द्रव्यमें नित्यत्वका विधान करनेवाली विधि मुख्य हो जाती है और निषेध (अनित्यत्व) गौण हो जाता है। इसी प्रकार जब वक्ताकी दृष्टि पर्यायके प्रतिपादन पर होती है उस समय निषेध ( अनित्यत्व ) मुख्य हो जाता है और विधि (नित्यत्व) गौण हो जाती है। इस प्रकार श्री सुमति जिनने अनेकान्तवादके अनुसार जीवादि तत्त्वोंके "प्ररूपणकी जो पद्धति बतलायी है वही सर्वोत्तम पद्धति है। इसके विपरीत अन्य एकान्तवादियोंकी पद्धति युक्तिसंगत नहीं है । यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि हे सुमति जिन ! आपमें मतिका उत्कर्ष है । आपकी मति सर्वोत्तम मति है । आपकी स्तुति करनेके फलस्वरूप मैं केवल यही कामना करता हूँ कि आपके प्रसादसे मुझमें भी ज्ञानका उत्कर्ष हो जिससे मैं भी आपके समान ज्ञानी ( केवलज्ञानी ) बन सकूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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