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________________ श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन सरस्वती दोनोंको ही धारण किया था। तदनन्तर जीवन्मुक्त होने पर सम्पूर्ण शोभासे युक्त तथा सर्वज्ञलक्ष्मीसे प्रदीप्त ऐसी सरस्वतीको ही धारण किया था। विशेषार्थ-यहाँ प्रतिमुक्तिलक्ष्मी शब्दके अर्थ पर विचार करना है। मुक्तिलक्ष्मी और प्रतिमुक्तिलक्ष्मी इन दोनों शब्दोंका अर्थ एक न होकर भिन्नभिन्न होना चाहिये । ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका क्षय हो जाने पर मुक्तिलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । और चार घातिया कर्मोका क्षय होने पर अर्हन्त अवस्थामें जिस मुक्ति लक्ष्मीको प्राप्ति होती है उसको प्रतिमुक्तिलक्ष्मी कह सकते हैं। क्योंकि वह मुक्तिलक्ष्मीके सदृश है । अर्हन्तको जीवन्मुक्त भी कहते हैं। श्री पद्मप्रभ जिनने अर्हन्त अवस्थासे पहले अर्थात् गृहस्थावस्थामें लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको ही धारण किया था । जब वे गृहस्थावस्थामें थे तब अपार धन-सम्पत्तिके स्वामी थे तथा अवधिज्ञानादिरूप ज्ञानलक्ष्मोसे भी विभूषित थे। विद्याको अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भी उनके हृदयमें विद्यमान थी। वे अनेक विद्याओंके ज्ञ.ता और विशिष्ट श्रुतके धारक थे। श्री पद्मप्रभ जिनने गृहस्थावस्थाके बाद जब अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त किया तब भी उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको ही धारण किया था। किन्तु गहस्थावस्थाकी लक्ष्मी और सरस्वतीसे अर्हन्त अवस्थाकी लक्ष्मी और सरस्वतीमें महान् अन्तर है । उन्होंने जीवन्मुक्त अवस्थामें जिस लक्ष्मीको धारण किया था वह अनन्तज्ञानस्वरूप सर्वज्ञत्वरूप लक्ष्मी है। और यहाँ जो सरस्वती है वह दिव्यध्व निरूप है तथा समस्त पदार्थोके प्रतिपादन करनेके कारण द्वादशांगवाणीरूप भी है । उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि श्री पद्मप्रभ जिनने अर्हन्त अवस्थामें ऐसी सरस्वतीको धारण किया था जो सर्वज्ञ लक्ष्मीसे प्रदीप्त है तथा समग्र शोभा से सम्पन्न है । सरस्वतीकी समग्र शोभा यही है कि वह दिव्यध्वनि द्वारा संसारके समस्त पदार्थोंका प्रतिपादन करती है तथा समवसरणादि विभूतिसे युक्त है । अर्हन्त अवस्थामें सरस्वती सर्वज्ञ लक्ष्मीसे युक्त होनेके कारण ही समस्त पदार्थोंका साक्षात् प्रतिपादन करने में समर्थ होती है। शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छविरालिलेप। नरामराकीर्णसभां प्रभा वा __ शैलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम् ॥३॥ सामान्यार्थ-हे प्रभो ! प्रातःकालीन बाल सूर्यको किरणोंकी छविके समान आपके शरीरकी किरणोंके प्रसारने मनुष्यों और देवोंसे भरी हुई समवसरणसभाको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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