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________________ १२ स्वयम्भू स्तोत्र तत्त्वप्रदीपिका और सबका कल्याण करनेवाला है । इसके विपरीत जो पर मत है वह मधुर वचनोंके विन्यास से मनोज्ञ होने पर भी बहुगुण सम्पत्तिसे विकल होने के कारण अपूर्ण है तथा लोकका कल्याणकारी नहीं है । स्वयम्भूस्तोत्र यद्यपि मुख्य रूपसे भक्तिपरक ग्रन्थ है, फिर भी इसमें ज्ञान - योग और कर्मयोगका भी दिग्दर्शन उपलब्ध होता है । कुछ लोग भक्तियोगको, अन्य लोग ज्ञानयोगको तथा दूसरे लोग कर्मयोगको मोक्षका मार्ग मानते हैं । किन्तु जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। वह तो उक्त तीनों योगोंके समन्वयको मोक्षका मार्ग मानता है । हम भक्तियोगको सम्यग्दर्शन, ज्ञानयोगको सम्यग्ज्ञान और कर्म - योगको सम्यक् चारित्र कह सकते हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी समग्रता ( पूर्णता ) ही मोक्षका मार्ग है । भक्तियोग : संसारी प्राणी कर्मकलंकसे आवृत होनेके कारण अपनी आत्माके ज्ञानादि विकास नहीं कर पाता है । फिर भी उनमें कुछ ऐसे भव्य जीव होते हैं जो कालब्धि आदि अनुकूल साधनों के मिलने पर आत्मविकास के पथ पर चलते हुए पाँच परम पदों को प्राप्त कर लेते हैं । ये पाँच परम पद हैं - अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनको पञ्च परमेष्ठी कहते हैं । पाँचों परमेष्ठी हमारे आराध्य हैं, पूज्य हैं और स्तुत्य हैं । सिद्ध परमेष्ठी अष्ट कर्म रहित होने से पूर्ण विकसित आत्मा हैं । अरहन्त परमेष्ठी चार घातिया कर्म रहित होनेसे बहुविकसित आत्मा हैं । तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु अल्प विकसित आत्मा हैं । इनके अतिरिक्त अन्य संसारी प्राणी अविकसित आत्मा हैं । अरहन्त और सिद्ध देव हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं । जिनमुखसे उद्भूत दिव्यध्वनिरूप जिनवाणी शास्त्र या आगम है । देव, शास्त्र और गुरुकी सच्ची श्रद्धा के साथ विनय करना, भक्ति करना और स्तुति करना भक्तियोग है । स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, आराधना, सेवा और श्रद्धा ये सब भक्ति ही अनेक रूप हैं | अपनी आत्मा के हित और विकास के इच्छुक जीवों को देव, शास्त्र और गुरुकी शरण में जाना चाहिए, उनके गुणोंका कीर्तन करना चाहिए और उनके द्वारा बतलाये हुए मार्ग पर चलना चाहिए । ऐसा करनेसे भक्त भी उन्हीं की तरह बननेका प्रयत्न करते हुए किसी समय उन्हीं जैसा परमेष्ठी बन सकता है । स्वयम्भूस्तोत्रमें आचार्य समन्तभद्रने अर्हत अवस्थाको प्राप्त चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की है । शुद्धात्माओं के प्रति समन्तभद्र अत्यन्त विनम्र और उनके गुणों में तीव्र अनुरागी थे । यह बात उनके द्वारा रचित स्तुति ग्रन्थोंसे भलीभाँति ज्ञात हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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