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________________ प्रस्तावना (आवरण) से रहित उनका शरीर कामदेव पर विजय का सूचक था और उन्होंने भयंकर शस्त्रोंके बिना ही क्रोधादि कषायरूप शत्रुओं का विनाश किया था। बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि जिन हरिवंशकेतु, दीर्घ नेत्रोंके धारक तथा दमतीर्थके नायक थे । उन्होंने परम योगरूप अग्निसे ज्ञानावरणादि रूप कर्मकाष्ठ को भस्म करके विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को करतल स्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना था। वे शीलके समुद्र थे । उनके चरण कमल इन्द्रादि द्वारा वन्दित थे। श्रीकृष्ण तथा बलरामने अपने बन्धवर्ग के साथ स्वजन भक्तिवश उनके चरणों को बारम्बार प्रणाम किया था। मंत्रमुखर महर्षिजन अपने कल्याण के लिए उनके चरणकमलों को प्रणाम करते थे । सौराष्ट्र में लोकप्रसिद्ध गिरनार पर्वत है, जिसपर श्री नेमि जिन ते दिगम्बरी दीक्षा धारण करके तपस्या की थी और उसी पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया था। इसी कारण वह पर्वत तीर्थस्थान है और वह आज भी ऋषियों द्वारा निरन्तर सेवित है। तेईसवें तीर्थकर उग्रवंशी श्री पार्श्व जिन महामना थे । इसीलिए वे पूर्वके वैरी कमठके जीव द्वारा भयंकर मेघोंके रूपमें किए गये घोर उपसर्गसे उपद्रवग्रस्त होने पर भी अपने ध्यानरूप योगसे विचलित नहीं हुए थे। उस समय पूर्वकृत उपकारवश धरणेन्द्र नामक नागकुमार जाति के देवने उपसर्ग निवारणके लिए विक्रिया द्वारा नागका रूप धारण करके श्री पार्श्व जिन के ऊपर बृहत्फणाओं का मण्डप बना लिया था। तदनन्तर उन्होंने शुक्लध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मों का नाश करके अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया था। वे विधूतकल्मष, शमोपदेशक तथा जगत्के ईश्वर थे। अतः पञ्चाग्नितप आदि निष्फल क्रियाएँ करने वाले वनवासी तपस्वी भी उनकी शरणमें आये थे। वे सत्य विद्याओं और तपस्याओंके प्रणेता थे तथा उन्होंने एकान्तवादरूप मिथ्यामार्गोंकी दृष्टियोंसे उत्पन्न होनेवाले विभ्रमोंको नष्ट कर दिया था। चौबीसवें तीर्थङ्कर श्री वीर जिन अपनी निर्मल कीतिसे इस भूमण्डल पर शोभायमान हुए थे । उनके शासनका माहात्म्य इस कलिकालमें भी जयवन्त है । प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरोध रहित होनेके कारण उनका स्याद्वाद निर्दोष है। इसके विपरीत प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरोध आनेके कारण अस्याद्वादियोंका कथन सदोष है। वे सुर और असुरोंसे पूजित थे तथा तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिए परम हितकारो थे। उन्होंने मायारहित यम और दमका उपदेश दिया था । श्री वीर जिनने अपने विहारके समय सब प्राणियोंको अभयदान दिया था और आगमोंकी रक्षा की थी। श्री वीर जिनका शासन नयों के भङ्गरूप अलंकारोंसे अलंकृत होनेके कारण बहुगुण सम्पत्तिसे युक्त, पूर्ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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