SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १३ जाती है । यथार्थ में चित्त वही है जो जिनेन्द्रका स्मरण करता है, वाणी वही है जो जिनेन्द्रका स्तवन करती है और मस्तक वही है जो जिनेन्द्रके चरणों में नत रहता है । आचार्य समन्तभद्रने अपनेको चौबीस तीर्थंकरोंकी भक्ति के लिए समर्पित कर दिया था । जिनेन्द्रमें उनकी जो श्रद्धा थी वह अन्ध श्रद्धा न होकर सम्यक् श्रद्धा थी । इस प्रकारका भक्तियोग सम्यग्दर्शनके बिना नहीं हो सकता है | अतः भक्तियोगको सम्यग्दर्शन कहना सर्वथा उचित है । ज्ञानयोग : जीवादि तत्त्वोंका, मोक्षमार्गका, आत्माके शुद्धस्वरूपका, संसार के स्वरूपका, देह और भोगोंका, रागादि दोषोंका, आत्माकी विभाव परिणतिका तथा विभावोंको दूर कर स्वभावमें स्थित होनेका जो ज्ञान है वही ज्ञानयोग है और यही सम्यग्ज्ञान है । स्वयम्भू स्तोत्र में ऐसे अनेक कथन हैं जिनके द्वारा ज्ञानयोग पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । हेय और उपादेय तत्त्वोंको जानकर ममत्वसे विरक्त होना, परिग्रहका त्याग कर जिनदीक्षा लेना, यह जगत् अनित्य है, अशरण है, जन्म-जरा-मरण के दुःखोंसे युक्त है, विषय सुख बिजलीके समान चंचल हैं, विषयासक्ति से तृष्णाकी वृद्धि होती है, समाधि की सिद्धि के लिए उभय प्रकार के परिग्रहका त्याग आवश्यक है, मुमुक्षु होने पर चक्रवर्तीका समस्त वैभव और साम्राज्य जीर्ण तृणके समान मालूम पड़ता है, प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अनेकान्तक वस्तुतत्त्व प्रमाणसे अबाधित है, विधि और निषेध में अपेक्षा भेदसे मुख्य और गौणकी व्यवस्था होती है, निरपेक्ष नय मिथ्या हैं और सापेक्ष नय सम्यक् हैं, अनेकान्तदृष्टि सती है और एकान्तदृष्टि असती है, अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है, संसारका प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक क्षण में उत्पाद, व्यय और प्रोव्यरूप है, अहिंसा परम ब्रह्म है, धर्मतोर्थ संसार समुद्रसे पार उतरनेका श्रेष्ठ मार्ग है, इत्यादि अनेक कथनों द्वारा स्वयम्भूस्तोत्रमें ज्ञानयोग को बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त चौबीस तीर्थंकरोंके स्तवनोंमें अर्हन्त परमेष्ठी के गुणों का जो परिचय प्राप्त होता है वह भी ज्ञानयोग ही है । इस प्रकार स्वयम्भूस्तोत्र ज्ञानयोगका भी प्रतिपादक है । कर्मयोग : आत्मविकासके लिए मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप अथवा निवृत्तिरूप जो कर्म या आचरण किया जाता है वह कर्मयोग है । इस प्रकार कर्मयोगके दो भेद होते हैं - प्रवृत्तिरूप कर्मयोग और निवृत्तिरूप कर्मयोग । प्रवृत्तिरूप कर्मयोग शुभ कार्यों में मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति होती है तथा निवृत्तिरूप कर्मयोग में तीनों योगोंकी क्रियाका निरोध होता है । कर्मयोगका अन्तिम लक्ष्य है आत्मा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy