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________________ श्री नेमि जिन स्तवन १६५ प्राप्त किया था । गुजरातके सौराष्ट्र प्रदेशमें ऊर्जयन्त नामक एक पर्वत है जिसे वर्तमान में गिरनार कहते हैं। यह पर्वत श्री नेमि जिनके चरणोंसे अनेक बार पवित्र हुआ है । यह पर्वत पृथिवीका ककुद है। बैलके कन्धेके ऊपरी भागको ककुद कहते हैं । जिस प्रकार ककुद शरीरके सब अवयवोंके ऊपर स्थित होनेसे शोभाको प्राप्त होता है, उसी प्रकार ऊर्जयन्त पर्वत पृथिवीके ऊपरी भाग पर स्थित होनेके कारण ऐसा मालूम पड़ता है मानों वह पृथिवीका ककुद हो । उस पर्वतके शिखरों पर विद्याधरोंकी स्त्रियाँ क्रीड़ा किया करती हैं, उसके तट (शिखर प्रदेश ) मेघोंके समूहसे व्याप्त रहते हैं तथा उस पर्वतपर इन्द्रने श्री अरिष्टनेमि जिनके चिह्नोंको तथा यश प्रशस्तियोंको अथवा शिलालेखोंको वज्रद्वाग उत्कीर्ण किया था । इसलिए वह पर्वत लोकमें तीर्थ माना जाता है और इसी कारण बड़े-बड़े ऋषि सदासे उस पर्वतकी सेवा करते आ रहे हैं तथा आज भी भक्तिसे उल्लसित हृदयवाले आत्मकल्याणके इच्छुक लोग सब ओरसे आकर उस पर्वतकी सेवा करते हैं । उस पर्वत पर भगवान् अरिष्टनेमिका समवसरण अनेकों बार आया था और श्रीकृष्ण तथा बलरामने अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ वहाँ पहुँचकर भक्तिपूर्वक भगवानके चरणों में बारम्बार प्रणाम किया था। यहाँ यह ज्ञात नहीं हो रहा है कि इन्द्रने ऊर्जयन्त पर्वत पर नेमिनाथ भगवान्के कौनसे चिह्न लिखे या उत्कीर्ण किये थे। सम्भवतः इन्द्रने श्री नेमि जिनके चरणचिह्न उत्कीर्ण किये हों अथवा उपदेश सम्बन्धी कोई शिलालेख लिखे हों। यह भी सम्भव है भगवान् नेमिनाथके विषयमें कुछ प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण की हों। बहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नार्थकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद् विवेदिथ ॥९॥ अतएव ते बघदूतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ॥१०॥ सामान्यार्थ हे नाथ, आपने सम्पूर्ण विश्वको सदा करतल स्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना है और इस ज्ञानमें बाह्य करण चक्षुरादि और अन्तःकरण मन न तो पृथक्-पृथक् और न एक साथ मिल करके न तो कोई विघात ( बाधा ) उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही करते हैं । इसीलिए विद्वानों द्वारा स्तुत आपके आश्चर्यकारक अभ्युदयसे सहित तथा न्याय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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