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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका विहित ( आगम द्वारा प्रसिद्ध ) चरितगुण ( माहात्म्य विशेष ) को अच्छी तरह जानकर हम बड़े प्रसन्न चित्तसे आपमें स्थित हुए हैं। विशेषार्थ-यहाँ श्री नेमि जिनके ज्ञानगुणकी विशेषताको बतलाया गया है। श्री नेमि जिन अपने केवलज्ञानरूप अतीन्द्रिय ज्ञानके द्वारा विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों को उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों सहित एक साथ जानते हैं। जिस प्रकार हाथ पर रखी हुई स्फटिकमणिका प्रत्येक भाग सब ओरसे एक साथ स्पष्ट दिखता है, उसी प्रकार श्री नेमि जिनके केवलज्ञान में विश्वके सम्पूर्ण पदार्थ युगपत् झलकते हैं । यहाँ मीमांसक शंका कर सकता है कि संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान एक साथ संभव नहीं है । कोई भी ज्ञान इन्द्रियजन्य ही होता है और उसके द्वारा इन्द्रियसम्बद्ध वर्तमान अर्थको ही जाना जाता है ।। मीमांसककी उक्त प्रकारकी शंका ठीक नहीं है। इन्द्रिय जन्य ज्ञानके अतिरिक्त एक अतीन्द्रिय ज्ञान भी है जो आत्ममात्र सापेक्ष होता है। श्री नेमि जिनका सकल पदार्थ साक्षात्कारी ज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान है । स्पर्शनादि पाँच बाह्य इन्द्रियाँ और मन ( अन्तरंग इन्द्रिय ) अतीन्द्रियज्ञानके बाधक नहीं हैं और न ये अती न्द्रि य ज्ञानका उपकार ही करते हैं । अतीन्द्रिय ज्ञानमें इन्द्रियोंकी कोई अपेक्षा ही नहीं होती है । इस कारण इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय ज्ञानमें बाधक कैसे हो सकती हैं। उनकी अपेक्षाके अभावमें वे अतीन्द्रिय ज्ञानकी उपकारक भी नहीं है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय जन्य होनेके कारण परोक्ष ज्ञान हैं । अवविज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान आत्ममात्रसापेक्ष होनेसे अतीन्द्रिय ज्ञान ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष ) हैं । इनमेंसे समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको विषय करनेके कारण केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है। तथा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान कुछ पदार्थोंको विषय करनेके कारण विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं। किन्तु केवलज्ञानकी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान भी अपये विषयमें पूर्णरूपसे विशद होते हैं । अतः ये तीनों ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं। __ श्री ने मि जिन केवलज्ञान सम्पन्न हैं । इसलिए बड़े-बड़े विद्वान् उनकी स्तुति करते हैं । श्री नेमि जिनने आगममें प्रतिपादित विधिके अनुसार तपश्चर्या आदि क्रियाओंका अनुष्ठान किया था और इस अनुष्ठानके द्वारा केवलज्ञानरूप अन्तरंग विभूति तथा समवसरणादिरूप बहिरंग विभूतिके आश्चर्यजनक अभ्युदयको प्राप्त किया था । श्री नेमि जिनके ऐसे चरित ( अनुष्ठान ) के निर्विघ्न स्वकार्यप्रसाधक गुणको जानकर हम भी अत्यधिक प्रसन्न मनसे श्री नेमि जिनमें स्थित हुए हैं । हम श्री नेमि जिनकी शरणमें इसलिए आये हैं जिससे कि उनके आश्रयसे हम भी उसी प्रकारका अनुष्ठान करके आश्चर्यजनक अभ्युदयके पात्र बन सकें। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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