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________________ १६४ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका मण्डल:' के स्थानमें 'अंसमण्डलः' ऐसा भी एक पाठ हैं । अंसका अर्थ है-कन्धा । अतः इस पाठके अनुसार कान्तिमान सुदर्शनचक्ररूप सूर्यबिम्बकी किरणोंसे जिनके कन्धोंका प्रदेश व्याप्त हो रहा है, ऐसा अर्थ करना चाहिए । श्रीकृष्णके शरीरका वर्ण बतलानेके लिए कहा गया है कि उनका शरीर नीले कमल पत्रोंकी राशि (समूह) के समान श्याम था। श्रीकृष्णकी ध्वजामें गरुड़का चिह्न होनेके कारण उनको गरुड़केतु भी कहते हैं। नारायण होनेके कारण श्रीकृष्ण तीन खण्ड पृथिवीके स्वामी थे । इस प्रकार यहाँ श्री अरिष्टनेमि जिनके चचेरे भाई श्रीकृष्णकी शारीरिक तथा लौकिक अनेक विशेषताओंका वर्णन किया गया है। श्रीकृष्णके भाईका नाम बलराम था, जो बलभद्र थे और हल नामक शस्त्रके धारी थे। इसीलिए उनको हलघर भी कहते हैं। ऐसे इन दोनों भाइयोंने अपने अन्य भाइयोंके साथ गिरनार पर्वतपर जाकर अपने भाई तीर्थकर अरिष्टनेमिको बारम्बार प्रणाम किया था। पाँचवें श्लोकको द्वितीय पंक्तिमें 'नीलजलजदलराशिवपुः' के स्थानमें 'नीलजलदजलराशिवपुः ऐसा भी एक पाठ है । इस पाठमें वपुका सम्बन्ध नीलजलद (नीले मेघ ) और जलराशि ( समुद्र) इन दो पदोंके साथ लगाना पड़ता है। तब इस पाठका अर्थ इस प्रकार होता है-जिनका शरीर नीले मेघ और समुद्रके समान श्याम वर्ण है । इन दोनों पाठोंमेंसे प्रथम पाठ अधिक संगत मालम पड़ता है । क्योंकि इस पाठमें वपुका सम्बन्ध 'नीलजलजदलराशि' पदके साथ आसानीसे लग जाता है। ककुदं भुवः खचरयोषिदुषितशिखरैरलङ्कृतः । मेघपटलपरिवीततटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥७॥ वहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च । प्रीतिविततहृदयैः परितो भृशमूर्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः॥८॥ सामान्यार्थ-जो पृथिवीका ककुद है, जो विद्याधरोंकी स्त्रियों द्वारा सेवित शिखरोंसे अलंकृत है और जिसके तट मेघ पटलोंसे घिरे रहते हैं, ऐसा लोकप्रसिद्ध ऊर्जयन्त ( गिरनार ) नामक पर्वत है, जो इन्द्र द्वारा लिखे गये आपके चिह्नोंको धारण करता है, इसलिए तीर्थस्थान है और वह आज भी भक्तिसे उल्लसित हृदयवाले ऋषियों द्वारा सब ओरसे निरन्तर अत्यधिक सेवित है । विशेषार्थ-यहाँ उस ऊर्जयन्त पर्वतका वर्णन किया गया है जहाँ पहुँचकर श्री नेमि जिनने दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी, तपस्या की थी और अन्तमें मोक्ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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