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________________ श्री नेमि जिन स्तवन १६३ युगलको सदा प्रणाम करते रहते हैं । जब इन्द्र श्री नेमि जिनके चरणोंमें अपना मस्तक झुकाता है तब उसके मुकुटमें लगे हुए मणियों और रत्नोंकी किरणोंका समूह उनके चरणोंपर फैल जाता है, जिससे उनके चरणोंकी शोभा और अधिक बढ़ जाती है । चरणों का तल भाग खिले हुए कमल पत्रके समान लाल है और अँगुलियों जो न हैं वे ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे चन्द्रमा चमक रहे हों । अत: जब नखरूप चन्द्रमाकी किरणें अँगुलियोंके उन्नत अग्रभाग पर पड़ती हैं तब वे 'परिमण्डलाकार में परिणत होकर अँगुलियोंके स्थानको अत्यन्त मनोहर बना देती हैं। इस प्रकार यहाँ श्री नेमि जिनके चरणयुगलकी मनोहारी छविका वर्णन किया गया है | द्युतिमद्रथाङ्गरविबिम्बकि रणजटिलांशुमण्डलः नीलजलजदलराशिवपुः सह बन्धुभिर्गरुडकेतुरीश्वरः ॥ ५ ॥ हलभृच्च ते स्वजनभक्तिमुदितहृदयौ जनेश्वरौ । धर्मविनयरसिकौ सुतरां चरणारविन्दयुगलं प्रणेमतुः ॥ ६ ॥ सामान्यार्थ - जिनके शरीरका कान्तिमण्डल कान्तिमान सुदर्शनचक्ररूप - सूर्यबिम्बकी किरणोंसे व्याप्त हो रहा है, जिनका शरीर नीले कमल दलों (पत्तों) की राशि के समान श्यामवर्ण है, जिनकी ध्वजामें गरुड़का चिह्न है, तथा जो तीन खण्ड पृथिवीके स्वामी हैं ऐसे श्रीकृष्ण और हल नामक शस्त्र के धारी बलराम इन दोनों लोकनायकोंने, जिनके चित्त स्वजनभक्ति से प्रसन्न हो रहे थे और जो धर्मरूप विनयके रसिक थे, आपके चरण कमलोंके युगलको अपने अन्य भाइयोंके साथ बार-बार प्रणाम किया था । विशेषार्थ - श्री अरिष्टनेमि जिनके पिता समुद्रविजय दस भाई थे । इनमें समुद्रविजय सबसे बड़े थे । श्रीकृष्ण तथा बलरामके पिता वसुदेव सबसे छोटे थे । श्रीकृष्ण नारायण थे और बलराम बलभद्र थे तथा श्री नेमि जिन उनके चचेरे भाई थे । श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही लोकनायक थे, धर्मकी विनयके रसिक थे और तीर्थङ्करके रूपमें अपने भाई श्री अरिष्टनेमिको प्रतिष्ठा को देखकर उनके हृदय अत्यन्त प्रसन्न हो रहे थे । ऐसे इन दोनों भाइयोंने अपने अन्य भाइयोंके साथ भगवान् अरिष्टनेमिके चरणकमलोंको बार-बार प्रणाम किया था । श्रीकृष्ण नारायण होने के कारण रथाङ्ग (सुदर्शनचक्र ) के धारी थे । वह सुदर्शनचक्र सूर्यमण्डल के समान देदीप्यमान था । श्रीकृष्णका शरीर स्वयं कान्तिमान था, किन्तु कान्तिमान सुदर्शनचक्ररूप सूर्यबिम्बकी किरणोंके शरीरपर * पड़ने से वह और भी अधिक कान्तिमान हो गया था । पाँचवें श्लोक में 'अंशु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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