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________________ १४२ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका मतिगुणविभवानुरूपत स्त्वयि वरदागमदृष्टिरूपतः । गुणकृशमपि किञ्चनोदितं __मम भवताद् दुरितासनोदितम् ॥ २० ॥ (१०५) सामान्यार्थ-हे वरद अर जिन ! मैंने अपनी बुद्धि के गुणोंकी शक्तिके अनुरूप तथा आगमकी दृष्टिके अनुसार आपके विषयमें आपके गुणोंका जो थोड़ा . सा कीर्तन किया है वह गुण कीर्तन मेरे पाप कर्मों के विनाशमें समर्थ होवे । विशेषार्थ-श्री अर जिन वरद है-वरको प्रदान करनेवाले हैं । बुद्धिके गुणका विभव है-उसकी शक्ति । श्री अर जिनमें अनन्त गुण हैं। उन अनन्त गुणोंका वर्णन करना असम्भव है। हे अर जिन ! मैंने अपनी बुद्धिके गुणोंकी शक्तिके अनुसार आगममें प्रतिपादित आपके गुणोंके आधार पर आपके कुछ थोड़ेसे गुणोंका कीर्तन किया है । मैं अल्पबुद्धि हूँ, फिर भी मैंने यथाबुद्धि और यथाशक्ति आपके गुणोंका लेशमात्र कीर्तन किया है । हे भगवन् ! इस गुणकीर्तनके फलस्वरूप मुझे ऐसा वर दीजिए जिससे मेरे पाप कर्मोका क्षय हो जावे । जो कार्य किसी महापुरुष या सिद्धपुरुषके वचन बलसे सिद्ध होता है वह वर कहलाता है । अतः हे अर जिन ! मैं आपसे ऐसे वरकी आकांक्षा करता हूँ जिससे मेरे कर्मोंका क्षय हो जावे । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि भगवान् किसीको वर नहीं देते हैं । यहाँ वर मांगनेका तात्पर्य केवल इतना ही है कि स्तुतिकार अपनी भावनाको प्रकट करते हुए कहते हैं कि आपकी स्तुतिके फलस्वरूप मैं यही चाहता हूँ कि मैं कर्मोका क्षय करके आपके समान निर्मल बन जाऊँ। यहाँ यह दृष्टव्य है कि स्तुतिकारने सबसे अधिक स्तुति श्री अर जिनकी की है । जहाँ अन्य तीर्थंकरोंकी स्तुति प्रायः पाँच श्लोकों द्वारा की गई है वहाँ श्री अर जिनकी स्तुति बीस श्लोकों द्वारा की गई है। उन्नीसवें श्लोकमें उनका नाम अर जिन बतलाया गया है । लेकिन यहाँ यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि 'अर' नामकरणका कारण क्या है । वर्तमानमें श्री अर जिनका नाम अरहनाथ प्रचलित है । ___ व्याकरणशास्त्रके अनुसार 'अर' शब्द गमनार्थक ऋ धातुसे बना है । अतः जो अपने पथ पर सदा गमनशील रहता है वह 'अर' कहलाता है । श्री अर जिन अप्रमत्त होकर अपने मोक्ष पथ पर सदा गमनशील रहे हैं। इसलिए वे अर कहलाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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