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________________ ( १९ ) श्री मल्लि जिन स्तवन यस्य महर्षेः सकलपदार्थ प्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । सामरमत्यं जगदपि सर्व प्राज्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म ॥१॥ सामान्यार्थ-जिन महर्षिके सकल पदार्थों को जाननेवाला प्रत्यवबोध (परिज्ञान) साक्षात्रूपसे उत्पन्न हुआ और जिन्हें देवों और मनुष्योंके साथ समस्त जगत्ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया, मैं उन मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ । विशेषार्थ-श्री मल्लि जिन इन्द्रादि तथा गणधरादि द्वारा पूज्य महान् ऋषि हैं। उनका ज्ञान ( केवलज्ञान ) त्रिकालवी जीवादि समस्त पदार्थोंको उनके गुण और पर्यायोंके साथ साक्षात्रूपसे जानता है । उस ज्ञानमें इन्द्रिय, श्रुत आदिकी अपेक्षा नहीं होती है। वह आत्मामात्र जन्य होनेके कारण तथा मति आदि चार ज्ञानोंसे निरपेक्ष होने के कारण केवलज्ञान कहलाता है । श्री मल्लि जिनको सकल पदार्थोंका साक्षात्कार करनेवाला अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष उत्पन्न हो गया है । अर्थात् वे सर्वज्ञ हो गए हैं। इसी कारण चारों निकायोंके देवों तथा मनुष्योंके साथ संसारके अन्य प्राणियोंने भी उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया है। ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका क्षय हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है और केवलज्ञानी हो जाने पर भगवान् समवसरणमें विराजमान होकर भव्य जीवोंके कल्याणके लिए उपदेश देते हैं। उस समय समवसरणमें देव, मनुष्य और तिर्यंच भी उपस्थित रहते हैं तथा वे सब उपदेश श्रवणसे हर्षित होकर भगवान्को बारबार प्रणाम करते हैं । मैं ऐसे मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ। यस्य च मूर्तिः कनकमयोव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा। वागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पदपूर्वा रमयति साधून् ॥ २ ॥ सामान्यार्थ-सुवर्णसे निर्मित जैसी तथा अपनी स्फुरायमान आभासे शरीर के चारों ओर परिमण्डलकी रचना करनेवाली जिनकी मूर्ति ( शरीराकृति ) और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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