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________________ श्री विमल जिन स्तवन भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो १०९ भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ ५ ।। (६५) सामान्यार्थ - हे विमल जिन ! आपके मतमें जो नय हैं वे स्यात् पदरूप सत्यसे चिह्नित हैं | और रस ( पारा ) से अनुलिप्त लोह धातुओं की तरह अभिप्रेत फलको देते हैं । इसीलिए अपना हित चाहनेवाले आर्य जन आपके प्रति नत - हैं । विशेषार्थ - अनेकान्त दर्शन में वक्ता या प्रतिपत्ता के अभिप्रायरूप जो नय हैं वे स्यात् पदसे अंकित होते हैं । यह स्यात् पद सत्यरूप है और वस्तुके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादक है । नयोंके द्वारा अनेक धर्मोमेंसे एक समय में एक धर्मका प्रतिपादन किया जाता है । उस एक धर्मका प्रतिपादन स्यात् पदके प्रयोगके बिना संभव नहीं है । यह हो सकता है कि किसी वाक्य में स्यात् शब्दका प्रयोग न किया गया हो, फिर भी वहाँ स्यात् पदकी अपेक्षा अवश्य रहती है । स्यात् शब्दका पर्यायवाची शब्द कथंचित् है । जब वक्ता कहता है कि वस्तु नित्य है उस समय भी उसका आशय यही है कि वस्तु कथंचित् नित्य है । इस प्रकार नय स्यात् पदसे चिह्नित होते हैं । Jain Education International जिस प्रकार पारा आदि रसोंसे अनुलिप्त लोहा, ताँबा आदि धातुयें स्वर्णरूप परिणत होकर अभिप्रेत फलको देती हैं उसी प्रकार स्यात् पदसे अनुविद्ध नय भी अभिप्रेत फलको देते हैं । कोई साधक अपने मनोरथोंकी पूर्ति के लिए लोहासे स्वर्ण बनाने की साधना करता है । वह पारा आदिके रससे लोहाको अनुलिप्त करता है और इस प्रक्रिया द्वारा स्वर्णको प्राप्त करके अपनी इच्छित वस्तुओं को प्राप्त करता है । नय भी नयके ज्ञाताको अभिप्रेत फल देते हैं । नयोंका साक्षात् फल वस्तुतत्त्वका यथार्थ ज्ञान है । नयोंके उपयोगसे ऐसा सम्यग्ज्ञान हो जाता है कि वस्तु कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है । नयोंके द्वारा वस्तुतत्त्वका सम्यग्ज्ञान हो जानेपर व्यक्ति परम्परया स्वर्ग और अपवर्गको भी प्राप्त कर सकता है । यह नयोंका परम्परा फल है । यतः श्री विमल जिनके मतमें स्यात् पदसे अंकित नय अभिप्रेत फलको देते हैं, अतः अपना हित चाहनेवाले गणधर आदि आर्य पुरुष विमलनाथ भगवान्‌को प्रणाम करते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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