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________________ “१०८ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका रूपताका अतिप्रसंग नहीं आ सकता है। क्योंकि स्यात् पदके द्वारा विवक्षित विशेषण-विशेष्यसे अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका परिहार हो जाता है । विशेषार्थ-यहाँ विशेषण और विशेष्यके स्वरूपका विचार किया गया है । जिसके द्वारा किसी पदार्थ की विशेषता बतलायी जाती है वह विशेषण कहलाता है और जिसकी विशेषता बतलायी जाती है वह विशेष्य होता है। जैसे कृष्ण सर्प । यहाँ कृष्ण विशेषण है और सर्प विशेष्य है। जिस विशेष्यके विषयमें कुछ कहा जाता है वह वाच्यभूत ( वचनका विषय ) विशेष्य है। वाच्यभूत विशेष्य सामान्य और विशेष दोनों होते हैं। जब सामान्य वाच्यभूत होता है तब विशेष उसका विशेषण होता है और जब विशेष्य वाच्यभूत होता है तब सामान्य उसका विशेषण होता है। सर्वथा अवक्तव्यवादी कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि वस्तु वचनोंके अगोचर है। अर्थात् वचनों की प्रवृत्ति वस्तुमें नहीं होती है । ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्य और विशेष दोनोंको वाच्यभूत होनेके कारण उक्त मत निरस्त हो जाता है । यहाँ कोई शंका कर सकता है कि विशेषण और विशेष्य दोनोंमें सामान्यरूपताका प्रसंग आता है। वह इस प्रकार है-कृष्ण सर्प ऐसा कहनेपर सर्व सर्प कृष्ण हो जावेंगे। इस तरह सर्प विशेष्यमें सामान्यरूपताका प्रसंग आता है । तथा जैसे सर्प पृष्ठ ( पीठ ) आदि की अपेक्षासे कृष्ण है वैसे उदर आदि की अपेक्षासे भी कृष्ण हो जायेगा। इस प्रकार कृष्ण विशेषणमें सामान्यरूपताका प्रसंग आता है। उक्त प्रकार की शंका ठीक नहीं है। क्योंकि अनेकान्त दर्शन में कोई भी कथन स्यात् पद की अपेक्षा से होता है। अतः स्यात् पद युक्त कथनके द्वारा विवक्षित विशेषण और विशेष्यसे अन्य अविवक्षित विशेषण और विशेष्यका निराकरण हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सर्प कथंचित् कृष्ण है, सर्वथा नहीं । अर्थात् वह पृष्ठ आदि की अपेक्षासे कृष्ण है, उदर आदि की अपेक्षासे नहीं। सर्प भी कोई ही कृष्ण होता है, सब सर्प कृष्ण नहीं होते हैं । शुक्ल आदि रंगके भी सर्प देखे जाते हैं। इस प्रकार स्यात् ( कथंचित् ) शब्दके प्रयोग द्वारा विवक्षित विशेषण-विशेष्यसे अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका निराकरण हो जाता है । अतएव विशेषण और विशेष्यमें सामान्यरूपताका प्रसंग नहीं आ सकता है । नयास्तर स्यात्पदसत्यलाग्छिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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