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________________ (१४) श्री अनन्त जिन स्तवन अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषनवान् मोहमयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥ १॥ सामान्यार्थ-हे अनन्त जिन ! जिसका चित्तरूप शरीर अनन्त दोषोंका आधार है और जो चिरकालसे हृदयमें संलग्न है, ऐसा मोहरूप पिशाच तत्त्वोंकी श्रद्धामें प्रसन्नता धारण करनेवाले आपके द्वारा जीत लिया गया है, इसलिए आप भगवान् अनन्तजित् कहलाते हैं । विशेषार्थ--चौदहवें तीर्थंकरका नाम अनन्तजित् है । यह नाम सार्थक है । क्योंकि उन्होंने राग, द्वेष, काम, क्रोधादि अनन्त दोषोंको जीत लिया है। इस बातको इस प्रकार समझाया गया है। एक मोहरूप पिशाच है। उसके चित्तमें राग, द्वेषादि अनन्त दोष निवास करते हैं । राग, द्वेषादि दोषोंका आधार पिशाच का शरीर नहीं है किन्तु चित्त है। रागादि दोष शरीरमें नहीं रहते हैं किन्तु चित्तमें रहते हैं। उपरिलिखित श्लोकमें आशय शब्दके द्वारा रागादि दोषोंके आधारभूत चित्तको बतलाया गया है। आशय शब्दके साथ विग्रह (शरीर) शब्दका भी प्रयोग हुआ है । इसका तात्पर्य यही है कि मोहरूप पिशाचका चित्तरूप शरीर अनन्त दोषोंका आश्रय है । ऐसा मोहरूप पिशाच चिरकालसे संसारी प्राणियोंके हृदयमें बैठा हुआ है । उसीके कारण स्त्री-पुत्रादि तथा धन-धान्यादि पर पदार्थों में 'यह सब मेरा है' इस प्रकारका ममत्वभाव होता है। __ऐसे मोहरूप पिशाचको श्री अनन्तजिनने जीत लिया है। उन्होंने मोहरूप पिशाचको सरलतापूर्वक नहीं जीता है, किन्तु इसके लिए कुछ प्रयत्न करना पड़ा है। वह प्रयत्न है जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानमें प्रसन्नताका अनुभव करना। ऐसा करनेसे विपरीताभिनिवेशरूप मलका शोधन होकर सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिपूर्वक मिथ्यादर्शनका नाश हो जाता है। मोहरूप पिशाचको मिथ्यात्वरूप पिशाच भी कह सकते हैं । संसार अनन्त है और अनन्त संसारका कारण मिथ्यात्व भी अनन्त है। ऐसे अनन्त मिथ्यात्वको जीतनेके कारण श्री अनन्त जिनका अनन्तजित् यह नाम सार्थक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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