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मेरी जीवनगाथा
पर अवश्य साक्षी होगा कि यह कार्य अवश्य करणीय है । आठ दिनके बाद ही उत्तर आ गया कि चिन्ता मत करो श्री पार्श्वप्रभुके चरणप्रसादसे सब होगा । एक पत्र श्रीमान् स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्रजी जे. पी. बम्बई को भी लिखा कि जैनधर्मका मर्म जाननेके लिये संस्कृत विद्याकी महती आवश्यकता है । इस विद्याके लिये बनारस जैसा स्थान अन्यत्र उपयुक्त नहीं । इस समय आप ही एक ऐसे महापुरुष हैं जो यथाशक्ति धर्मकी उन्नति करनेमें दत्तचित्त हैं। आप तीर्थक्षेत्रों तथा छात्रावासोंकी व्यवस्था कर दिगम्बरोंका महोपकार कर रहे हैं। एक कार्य यह भी करनेमें अग्रेसर हूजिये । मेरी इच्छा है कि इस विद्यालयका उद्घाटन आपके ही करकमलोंसे हो । आशा है नम्र प्रार्थनाकी अवहेलना न होगी । बनारस समाजके गणमान्य बाबू छेदीलालजी, श्री स्वर्गीय बाबू बनारसीदासजी झवेरी आदि सब समाज सब तरहसे सहायता करनेके लिये प्रयत्नशील हैं। केवल आपके शुभागमनकी महती आवश्यकता है।
आठ दिन बाद सेठजी साहबका पत्र आ गया कि हम उद्घाटनके समय अवश्य काशी आवेंगे। इतनेमें ही एक पत्र बरुआसागरसे बाईजीका आया कि भैया ! पत्रके देखते ही शीघ्र चले आओ । यहाँपर सर्राफ मूलचन्द्रजी सख्त बीमार हैं, पत्रको तार जानो। हम तीनों अर्थात् मैं, गुरुजी और बाबाजी मेल ट्रेनमें बैठकर बरुआसागरको चल दिये। दूसरे दिन बरुआसागर पहुँच भी गये । श्रीसर्राफजीकी अवस्था रोगसे ग्रसित थी, किन्तु श्रीजीके प्रसादसे उन्होंने स्वास्थ्य लाभ कर लिया। हमने कहा- सर्राफजी ! हम लोगोंका विचार है कि बनारसमें एक दिगम्बर जैन विद्यालय खोला जावे, जिससे जैनियोंमें प्राचीन साहित्यका प्रचार हो । आपने कहा उत्तम कार्य है, २०००) गजाशाही, जिनके १५००) कल्दार होते हैं, हम देवेंगे, हम लोग बहुत ही प्रसन्न हुए।
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यहाँसे ललितपुर व बमराना, जहाँ कि श्रीब्रजलाल-चन्द्रभान लक्ष्मीचन्द्रजी सेठ रहते थे, गये और अपनी बात उनके सामने रक्खी। उन्होंने भी सहानुभूति दिखलायी। ललितपुरनिवासी सेठ मथुरादासजीने अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट की और यहाँ तक कहा कि यदि जैसा मेरा नाम है वैसा धनी होता तो आपको अन्यत्र भिक्षा माँगनेकी अभिलाषा नहीं रहती। उनके उद्गारोंको श्रवण कर हमारा साहस दृढ़तम हो गया ।
अब यही विचार हुआ कि बनारस चलें और इसके खुलनेका मुहूर्त निकलवावें । दो दिन बाद बनारस पहुँच गये और पञ्चांगमें मुहूर्त देखने लगे ।
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