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________________ स्याद्वाद विद्यालयका उद्घाटन 69 योग्य स्थान न हो । जहाँ पर श्वेताम्बर समाजका यशोविजय विद्यालय है जिसके भव्य भवनको देखकर चकाचौंध आ जाती है, जहाँ पर २० साधु और १० छात्र श्वेताम्बर जैन साहित्यका अध्ययन कर अपने धर्मका प्रकाश कर रहे हैं। यह सब श्री धर्मविजय सूरिके पुरुषार्थका फल है। क्या हमारी दिगम्बर समाज १० या २० छात्रोंके अध्ययनका प्रबन्ध न कर सकेगी ? आशा है आप लोग हमारी वेदनाका प्रतीकार करेंगे। यह मेरी एक की ही वेदना नहीं है किन्तु अखिल समाजके छात्रोंकी वेदना है । यद्यपि महाविद्यालय मथुरा, महापाठशाला, जयपुर तथा सेठ मेवारामजीका खुर्जाका विद्यालय आदि स्थानों पर संस्कृतके पठन-पाठनका सुभीता है तथापि यह स्थान जितना भव्य और संस्कृत पढ़नेके लिये उपयुक्त है वैसा अन्य स्थान नहीं है । आशा है हमारी नम्र प्रार्थना पर आप लोगों का ध्यान अवश्य जायगा इत्यादि । एक मासके भीतर बहुतसे महानुभावोंके आशाजनक उत्तर आ गये साथ ही १००) मासिक सहायताके भी वचन मिल गये। हम लोगोंके हर्षका ठिकाना न रहा। हमारे हर्षके हृदय कमल फूल गये । अब श्रीमान् गुरु पन्नालालजी वाकलीवालको भी एक पत्र इस आशयका लिखा कि यदि आप आकर इस कार्यमें सहायता करें तो वह कार्य अनायास हो सकता है । १० दिनके बाद आपका भी शुभागमन हो गया, आपके पधारते ही हमारे हृदयकी प्रसन्नताका पारावार न रहा । रात्रि दिन इसी विषयकी चर्चा और इसी विषयका आन्दोलन प्रायः दिगम्बर जैन पत्रोंमें कर दिया कि काशीमें एक जैन विद्यालयकी महती आवश्यकता है। कितने ही स्थानोंसे इस आशयके भी पत्र आये कि आप लोगों ने यह क्या आन्दोलन मचा रक्खा है ? काशी जैसे स्थानमें दिगम्बर जैन विद्यालयका होना अत्यन्त कठिन है । जहाँपर कोई सहायक नहीं, जैनमतके प्रेमी विद्वान् नहीं वहाँ क्या आप लोग हमारी प्रतिष्ठा भंग कराओगे । परन्तु हम लोग अपने प्रयत्नसे विचलित नहीं हुए । 1 श्रीमान् स्वर्गीय बाबू देवकुमारजी रईस आराको भी एक पत्र इस आशयका दिया कि आपकी अनुकम्पासे यह कार्य अनायास हो सकता है । आप चाहें तो स्वयं एक विद्यालय खोल सकते हैं। भदैनीघाट पर गंगाजीके किनारे आपके जो विशाल मन्दिर हैं उन्हें देखकर आपके पूर्वजोंके विशाल द्रव्य तथा भावोंकी विशुद्धताका स्मरण होता है । उसमें ५० छात्र सानन्द अध्ययन कर सकते हैं, ऊपर रसोईघर भी है । आशा है आपका विशाल हृदय हमारी प्रार्थना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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