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मेरी जीवनगाथा
बाबाजी तथा कामा जिला मथुराके झम्मनलालजी-तीनों व्यक्ति एक साथ सभास्थान पर पहुंचे। सभाकी व्यवस्था देखकर बहुत ही प्रसन्नता हुई। अच्छे-अच्छे व्याख्यान श्रवणगोचर हुए, हम भी चार मिनट बोले।
जब हम लोग सभासे लौटे तब मार्गमें यही चर्चाका विषय था कि यहाँ दिगम्बर जैन विद्यालय कब स्थापित होगा ! इसे सुनकर झम्मनलालजी कामावालोंने एक रुपया विद्यालयकी सहायताके लिये दिया। मैंने बड़ी प्रसन्नतासे रुपया ले लिया। बाबाजीने कहा-'भाई ! एक रुपयासे क्या होगा ?' मैंने कहा-'महाराज ! आपका आशीर्वाद ही सब कुछ करेगा। जरासे बीजसे ही तो वटका महान् वृक्ष हो जाता है जिसके तलमें हजारों नर-नारी पशु-पक्षीगण आश्रय पाते हैं। कौन जाने ? वीर प्रभुने यह एक रुपया ही जैन विद्यालयके उत्थानका मूल-कारण देखा हो। मैंने श्री झम्मनलालजीको सहस्रों धन्यवाद दिये और मार्गमें ही पोस्टआफिससे ६४ पोस्टकार्ड ले लिये। यह स्मरण आया कि
'अवश्यं भाविनो भावा भवन्ति महतामपि।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः ।। यही निश्चय किया जो होनेवाला है वह अवश्य होगा। बड़े हर्षके साथ निवास स्थान पर आये।
सायंकाल हो गया, जलपान कर छतके ऊपर श्री पार्श्वप्रभुके मन्दिरमें दर्शन किये और वहीं गंगाजीके सम्मुख सामायिक की। मनमें यह भाव आया कि हे प्रभो ! क्या आपके ज्ञानमें काशीनगरीमें हम लोगोंको साक्षर होना नहीं देखा गया है ? अन्तरात्मासे उत्तर मिलता है कि 'नहीं शब्दको मिटा दो । अवश्य ही तुम लोगोंके लिये इसी स्थान पर विद्याका ऐसा आयतन होगा, जिसमें उच्चकोटिके विद्वान् बनकर धर्मका प्रसार करेंगे। जाओ आजसे ही पुरुषार्थ करने की चेष्टा करो।'
क्या करें ? मनमें प्रश्न हुआ। अन्तरात्माने यही उत्तर दिया कि खरीदे हुए पोस्टकार्डोंका उपयोग करो। वहाँसे आकर रात्रिको ही ६४ पोस्टकार्ड लिखकर ६४ स्थानोंपर भेज दिये। उनमें यह लिखा था कि वाराणसी जैसी विशाल नगरीमें जहाँ हजारों छात्र संस्कृत-विद्याका अध्ययन कर अपने अज्ञानान्धकारका नाश कर रहे हों, वहाँ पर हम जैन छात्रोंको पढ़नेकी सुविधा न हो। जहाँ पर छात्रोंको भोजन प्रदान करनेके लिये सैकड़ों भोजनालय विद्यमान हों, वहाँ अधिककी बात जाने दो, पाँच जैन छात्रों के लिए भी निर्वाह
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