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________________ स्याद्वाद विद्यालयका उद्घाटन 67 जान सकते हैं। अतः मैं अध्ययनका सुअवसर मिलते हुए भी उसे खो रहा हूँ। आपके शिष्ट व्यवहारसे मेरी आपमें श्रद्धा है, आप महान व्यक्ति हैं। परन्तु चूंकि जिन मतमें साधुका जैसा स्वरूप कहा है वैसा आपमें नहीं पाता, अतः श्रद्धा होते हुए भी साधु-श्रद्धा नहीं। मैं अब आपको प्रणाम करता हूँ और अपने निवास स्थानपर जाता हूँ। जानेकी चेष्टा कर ही रहा था कि इतने में श्रीशास्त्रीजीने कहा कि 'अभी ठहरो, एक घण्टा बाद हम यहाँसे चलेंगे, तुम हमारे साथ चलना। मैंने कहा-'महाराज ! जो आज्ञा ।' __ शास्त्रीजी अध्ययन कराने लगे, मैं आपकी पाठन-प्रणालीको देख कर मुग्ध हो गया। मनमें आया कि यदि ऐसे विद्वान्से न्यायशास्त्रका अध्ययन किया जावे तो अनायास ही महती व्युत्पत्ति हो जावे । एक घण्टाके बाद श्रीशास्त्रीजीके साथ पीछे-पीछे चलता हुआ उनके घर पहुँच गया। उन्होंने बड़े स्नेहके साथ बातचीत की और कहा कि 'तुम हमारे यहाँ आओ, हम तुम्हें पढ़ायेंगे।' उनसे प्रेमसे ओत-प्रोत वचन श्रवणकर मेरा समस्त क्लेश एक साथ चला गया। वहाँसे चलकर मंदाकिनी आया, यहाँसे शास्त्रीजीका मकान दो मील पड़ता था, प्रतिदिन पैदल जानेमें कष्ट होता था, अतः वहाँसे डेरा उठाकर श्रीभदैनीके मन्दिरमें जो अस्सीघाटके ऊपर है चला आया। यहाँ पर श्री बद्रीदास पुजारी रहते थे जो बहुत ही उच्च प्रकृतिके जीव थे। उनके सहवासमें रहने लगा और एक पत्र श्री बाबाजीको डाल दिया। उस समय आप आगरामें रहते थे। बनारसके सब समाचार उसमें लिख दिये, साथ ही यह भी लिख दिया कि महाराज ! आपके शुभागमनसे सब ही कार्य सम्पन्न होगा, अतः आप पत्र देखते ही चले आइये। महाराज पत्र पाते ही बनारस आ गये। स्याद्वाद विद्यालयका उद्घाटन माघका महीना था, सर्दी खूब पड़ती थी, मैं अपना भोजन स्वयं बनाता था। बाबाजी और हम दोनों भोजनादिसे निवृत्त होकर २४ घण्टा यही चर्चा करते थे कि कौनसे उपायोंका अवलम्बन किया जावे जिससे काशीमें एक दिगम्बर विद्यालय स्थापित हो जावे। इतनेमें ही बनारसमें अग्रवाल महासभाका जलसा हुआ। राजघाटके स्टेशनके पास सभाका मण्डप लगा था। मैंने बाबाजीसे कहा-'महाराज ! हम लोग भी सभा देखनेके लिये चलें।' बाबाजीने सहर्ष चलना स्वीकृत किया। हम, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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