________________
मेरी जीवनगाथा
66
सूरिको विनयके साथ प्रणाम किया। आपने पूछा-'कौन हैं ?' मैंने कहा--'जैनी हूँ।' उन्होंने कहा-'किस धर्मके उपासक हो और यहाँ किस प्रयोजनसे आये हो ?' मैंने कहा-'दिगम्बर सम्प्रदायका माननेवाला हूँ, यहाँ अनायास ही आ गया-कोई उद्देश्य आनेका न था। हाँ, बनारस इस उद्देश्यसे आया हूँ कि संस्कृतका अध्ययन करूँ।' उन्होंने कहा-'कहाँ तक अध्ययन किया है ?' मैंने कहा--न्याय मध्यमाके प्रथम खण्डमें उत्तीर्ण हूँ और अब इसी विषयका आगे अध्ययन करना चाहता हूँ। परन्तु यहाँ पर कोई पढ़ानेको राजी नहीं। कल मैं एक नैयायिक महोदयके समीप गया था। उन्होंने पढ़ाना स्वीकार भी कर लिया और कहा कि कलसे आना। परन्तु जब उन्होंने पूछा कि 'कौन ब्राह्मण हो ?' तब मैंने कहा-'ब्राह्मण नहीं जैनधर्मानुयायी वैश्य हूँ | बस क्या था, जैनका नाम सुनते ही उन्होंने मर्मभेदी शब्दोंका प्रयोग कर अपने स्थानसे निकाल दिया। यही मेरी रामकथा है। आज इसी चिन्तामें भटकता-भटकता यहाँ आ गया हूँ।'
'बस, और कुछ कहना चाहते हो, नहीं तो हमारे साथ चलो, हम तुमको न्यायशास्त्रमें अद्वितीय व्युत्पन्न शास्त्रीके पास ले चलते हैं। वे हमारे यहाँ अध्यापक हैं।' मैं श्री धर्मविजय सूरिके साथ श्री अम्बादासजी शास्त्रीके पास पहुँच गया। आप छात्रोंको अध्ययन करा रहे थे। मैंने बड़ी नम्रताके साथ महाराजको प्रणाम किया। उन्होंने आशीर्वाद देते हुए बैठनेका आदेश दिया और मेरे आनेका कारण पूछा। मैंने जो कुछ वृत्तान्त था अक्षरशः सुना दिया।
इसके अनन्तर श्रीयुत शास्त्रीजी बोले-'क्या चाहते हो ?' मैंने कहा-'चाहनेसे क्या होता है ? मेरी तो चाह इतनी है कि सब विद्याओंका पण्डित हो जाऊँ । परन्तु भाग्य तो अनुकूल नहीं, दैवके अनुकूल हुए बिना हाथका ग्रास मुखमें आना असंभव हो जाता है। श्री धर्मविजय सूरि महाराजने कहा कि तुम चिन्ता मत करो, यहाँ पर आओ और शास्त्रीजीसे अध्ययन करो, तुम्हें कोई रोक-टोक नहीं। मैंने कहा-'महाराज ! आपका कहना बहुत सन्तोषप्रद है, परन्तु साथमें मेरा यह कहना है कि मैं दिगम्बर सम्प्रदायका हूँ अतः मेरी श्रद्धा निर्ग्रन्थ साधुमें है। आप साधु हैं, लोग आपको साधु-मुनि कहते भी हैं पर मैं जो वस्त्रधारी हैं उन्हें साधु नहीं मानता, क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदायमें एक लंगोटीमात्र परिग्रह होनेसे श्रावक संज्ञा हो जाती है इत्यादि। अब आप ही बतलाइये यदि मैंने आपके शिष्यवर्गकी तरह आपकी वन्दना न की तो आपके चित्तमें अनायास क्षोभ हो जावेगा और उस समय आपके मेरे प्रति क्या भाव होंगे सो, आप ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org