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गुरुदेवकी खोज में
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अथवा सम्भव है आपका निमित्तज्ञान ठीक भी हो, क्योंकि खुर्जाके एक ज्योतिषीने हमसे जो कहा था वह यथार्थ हुआ । हम आपको कोटिशः धन्यवाद देते हैं और इच्छा करते हैं कि आपके वाक्य सफलीभूत हों ।' आगन्तुक महाशयने कहा-'धन्यवाद अपने पास रखिये, किन्तु विशुद्ध परिणामोंसे पुरुषार्थ करो, सब कुछ होगा, अच्छा हम जाते हैं ।'
इतनेमें निद्रा भंग हो गई, देखा तो कहीं कुछ नहीं । प्रातः कालके ५ बजे होंगे, हाथ पैर धोकर श्रीपार्श्वप्रभुकी स्मृतिके लिये बैठ गया और इसीमें सूर्योदय हो गया । पक्षीगण कलरव करने लगे, मनुष्यगण जयध्वनि करते हुए मन्दिरमें आने लगे। मैं भी स्नानादि क्रियासे निवृत्त हो श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके पूजनादि कार्य कर पञ्चायती मन्दिरमें वन्दनाके निमित्त चला गया । वहाँसे बाजार भ्रमण करता हुआ चला आया । भोजनादिसे निवृत्त होकर गंगाजीके घाट पर चला गया । सहस्रों नर-नारी स्नान कर रहे थे, जय गंगे, जय विश्वनाथके शब्दसे घाट गूँज रहा था । वहाँसे चलकर विश्वनाथजीके मन्दिरका दृश्य देखनेके लिये चला गया ।
वहाँ पर एक महानुभाव मिल गये, 'बोले कहाँ आये हो ?' मैंने कहा- 'विश्वनाथजीका मन्दिर देखने आये हैं।' 'क्या देखा ?' उन्होंने कहा । मैंने उत्तर दिया- 'जो आपने देखा सो हमने देखा । देखना काम तो आँखका है, सबकी आँख देखनेका ही कार्य करती है। हाँ, आप महादेवके उपासक हैं - आपने देखनेके साथ मनमें यह विचार किया होगा कि 'हे प्रभो ! मुझे सांसारिक यातनाओंसे मुक्त करो। मैं जैनी हूँ, अतः यह भावना मेरे हृदयमें नहीं आई। प्रत्युत यह स्मरण आया कि महादेव तो भगवान् आदिदेव 'नाभिनन्दन ऋषभदेव हैं जिन्होंने स्वयं आत्मकल्याण किया और जगत्के प्राणियोंको कल्याणका मार्ग दर्शाया। इस मन्दिरमें जो मूर्ति है, उसकी आकृतिसे तो आत्मशुद्धिका कुछ भी भाव नहीं होता ।' उस महाशयने कहा - 'विशेष बात मत करो, अन्यथा कोई पण्डा आ गया तो सर्वनाश हो जायेगा। यहाँसे शीघ्र ही चले जाओ।' मैंने कहा—'अच्छा जाता हूँ।'
जाते-जाते मार्गमें एक श्वेताम्बर विद्यालय मिल गया, मैं उसमें चला गया। वहाँ देखा कि अनेक छात्र संस्कृत अध्ययन कर रहे हैं, अनेक साधु, जिनके शरीर पर पीत वस्त्र थे, वे भी अध्ययन कर रहे हैं। साहित्य, न्याय तथा धर्मशास्त्रका अध्ययन हो रहा है। मैंने पाठशालाध्यक्ष श्री धर्मविजय
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