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________________ 64 मेरी जीवनगाथा गुरुदेवकी खोजमें सायंकालका समय था, कुछ जलपान किया । अनन्तर श्री पार्श्वनाथ स्वामीके मन्दिरमें जाकर सायंकालकी वन्दनासे निवृत्त हो कोठरीमें आकर सो गया। सो तो गया, पर निद्राका अंश भी नहीं। सामने वही नैयायिकजी महाराजके स्थानका दृश्य अन्धकार होते हुए भी दृश्य हो रहा था । नाना विकल्पोंकी लहरी मनमें आती थी और विलय जाती थी । मनमें आता कि हे प्रभो ! यह वही वाराणसी है जहाँ आपके गर्भमें आनेके पहले छः मास पर्यन्त तीनों समय अविरल रत्नधारा बरसती थी और जिसकी संख्या प्रतिदिन साढ़े दस करोड़ होती थी । इस तरह छः मास गर्भसे प्राक् और नौ मास जब तक आप गर्भमें रहे थे, इसी प्रकार रत्नधारा बरसती थी। आज उसी नगरीमें आपके सिद्धांत-पथपर चलनेवालों पर यह वाग्वज्र-वर्षा हो रही है । हे प्रभो ! क्या करें ? कहाँ जावें ? कोई उपाय नहीं सूझता । क्या आपकी जन्म नगरीसे मैं विफल मनोरथ ही देशको चला जाऊँ ? इस तरहके विचार करते-करते कुछ निद्रा आ गई। स्वप्नमें क्या देखता हूँ कि - एक सुन्दर मनुष्य सामने खड़ा है, कहता है- 'क्यों भाई ! उदास क्यों हो ?' मैंने कहा- आपको क्या प्रयोजन ? न आपसे हमारा परिचय है और न आपसे हम कुछ कहते हैं, फिर तुमने कैसे जान लिया कि मैं उदासीन हूँ ?' उस भले आदमीने कहा कि 'तुम्हारा मुख वैवर्ण्य तुम्हारे शोकको कह रहा है।' मैंने उसे इष्ट समझकर नैयायिक महाराजकी पूरी कथा सुना दी। उसे सुनकर कहा - 'रोनेसे किसी कार्यकी सिद्धि नहीं होती । पुरुषार्थ करनेसे मोक्षलाभ हो जाता है फिर विद्याका लाभ कौनसी भारी बात े।' मैंने कहा - 'हमारी परिस्थिति ऐसी नहीं कि हम कुछ कर सकें।' आगन्तुक मगशयने सान्त्वना देते हुए कहा - 'चिन्ता मत करो, पुरुषार्थ करो, सब कुछ होगा । दुःख करनेसे पाप ही का बन्ध होगा और पुरुषार्थ करनेसे अभीष्ट फलकी सिद्धि होगी । तुम्हारे परम हितैषी बाबा भागीरथजी हैं उन्हें बुलाओ, उनके द्वारा आपको बहुत सहायता मिलेगी। हम विश्वास दिलाते हैं कि उनका तुम्हारा साथ आमृत्यु रहेगा। वह बहुत ही निःस्पृह और तुम्हारे शुभचिन्तक हैं । उन जैसा तुम्हारा मित्र 'न भूतो न भविष्यति । शीघ्र ही उनको बुलानेकी चेष्टा करो, उनके आते ही तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा। तुम दोनों यहाँ पर एक पाठशाला खोलनेका प्रयत्न करो, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हारा मनोरथ श्रुतपञ्चमी तक नियमसे पूर्ण होगा।' मैंने कहा - 'इतनी कथा क्या करते हो ? क्या तुम अवधिज्ञानी हो, इस कालमें इतने ज्ञानी नहीं देखे जाते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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