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जैनत्वका अपमान
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अनुसार ईश्वर चाहे जो हो, परन्तु उसकी यह आज्ञा कदापि नहीं हो सकती कि किसी प्राणीके चित्तको खेद कर पहुँचाओ । अन्यकी कथा छोड़ो, नीतिकारका भी कहना है कि
'अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।'
परन्तु आपने मेरे साथ ऐसे मधुर शब्दों में व्यवहार किया कि मेरी आत्मा जानती है । मेरा तो निजी विश्वास है कि सभ्य वही है जो अपने हृदयको पाप-पङ्कसे अलिप्त रक्खे, आत्महितमें प्रवृत्ति करे। केवल शास्त्रका अध्ययन संसार-बन्धनसे मुक्त करनेका मार्ग नहीं। तोता राम-राम उच्चारण करता है परन्तु रामके मर्मसे अनभिज्ञ ही रहता है । इसी तरह बहुत शास्त्रोंका बोध होने पर भी जिसने अपने हृदयको निर्मल नहीं बनाया उससे जगत्का क्या उपकार होगा ? उपकार तो दूर रहा, अनुपकार ही होगा। किसी नीतिकारने ठीक ही कहा है -
'विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय । खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।।
यद्यपि मैं आपके समक्ष बोलनेमें असमर्थ हूँ, क्योंकि आप विद्वान् हैं, राजमान्य हैं, ब्राह्मण हैं तथा उस देशके हैं जहाँ ग्राम-ग्राममें विद्वान् हैं । फिर भी प्रार्थना करता हूँ, कि आप शयन समय विचार कीजियेगा कि मनुष्य के साथ ऐसा अनुचित व्यवहार करना क्या सभ्यताके अनुकूल था । समयकी बलवत्ता है कि जिस धर्मके प्रवर्तक वीतराग सर्वज्ञ थे और जिस नगरीमें श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरका जन्म हुआ था, आज उसी नगरीमें जैनधर्मके माननेवालोंका इतना तिरस्कार ।'
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उनके साथ कहाँ तक बातचीत हुई लिखना बेकार है । अन्तमें उन्होंने यही उत्तर दिया कि यहाँसे चले जाओ, इसीमें तुम्हारी भलाई है। मैं चुपचाप वहाँसे चल दिया और मार्गमें भाग्यकी निन्दा तथा पञ्चम कालके दुष्प्रभावकी महिमाका स्मरण करता हुआ श्रीमन्दाकिनी आकर कोठरीमें रुदन करने लगा, पर सुननेवाला कौन था ?
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