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________________ मेरी जीवनगाथा वे वेदको न माननेवाले हैं या हमलोग, जो कि जलादि जीवोंकी भी रक्षा करनेकी चेष्टा करते हैं। ईश्वरकी सृष्टिमें सभी जीव हैं तब आपको क्या अधिकार है कि सृष्टिकर्ताकी रची हुई सृष्टिका घात करें और ऐसे-ऐसे निम्नांकित वाक्य वेदमें प्रक्षिप्त कर जगत्को असन्मार्गमें प्रवृत्त करें यज्ञार्थं पशवः सृष्टा यज्ञार्थं पशुघातनम्। __ अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।। और इस ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' वाक्यको अपनी इन्द्रियतृप्तिके लिये अपवाद वाक्य कहें ? खेदके साथ कहना पड़ता है कि आप स्वयं तो वेदको मानते नहीं और हम पर लांछन देते हैं कि जैन लोग वेदके निन्दक हैं।' पण्डितजी फिर बोले-'आज कैसे नादानके साथ संभाषण करनेका अवसर आया ? क्यों जी, तमसे कह दिया न कि यहाँसे चले जाओ, तुम महान् असभ्य हो, आज तक तुममें भाषण करने की भी योग्यता न आई, किन ग्रामीण मनुष्यों के साथ तुम्हारा सम्पर्क रहा ? अब यदि बहुत बकझक करोगे तो कान पकड़ कर बाहर निकाल दिये जाओगे ।' जब पण्डितजी महाराज यह बात कह चुके, तब मैंने कहा-'महाराज ! आप कहते हैं कि तुम बड़े असभ्य हो, ग्रामीण हो, शरारत करते हो, निकाल दिये जाओगे। महाराज ! मैं तो आपके पास इस अभिप्रायसे आया था कि दूसरे ही दिन उषःकालसे न्यायशास्त्रका अध्ययन करूँगा, पर फल यह हुआ कि कान पकड़ने तककी नौबत आ गई। अपराध क्षमा हो, आप ही बताइये कि असभ्य किसे कहते हैं ? और महाराज ! क्या यह व्याप्ति है कि ग्रामवासी हों वे असभ्य ही हों, ऐसा नियम तो नहीं जान पड़ता, अन्यथा इस बनारस नगरमें जो कि भारतवर्षमें संस्कृत भाषाके विद्वानों का प्रमुख केन्द्र है गुण्डाब्रज नहीं होना चाहिए था और यहाँ पर जो बाहरसे ग्रामवासी बड़े-बड़े धुरन्दर विद्वान् काशीवास करनेके लिये आते हैं उन्हें सभ्य कोटिमें नहीं आना चाहिए था। साथ ही महाराज ! आप भी तो ग्रामनिवासी ही होंगे। तथा कृपा कर यह तो समझा दीजिये कि सभ्यका क्या लक्षण है ? केवल विद्याका पाण्डित्य ही तो सभ्यताका नियामक नहीं है, साथमें सदाचार गुण भी होना चाहिए। मैं तो बारम्बार नतमस्तक होकर आपके साथ व्यवहार कर रहा हूँ और आप मेरे लिये उसी नास्तिक शब्दका प्रयोग कर रहे हैं ! महाराज ! संसारमें उसीका मनुष्य जन्म प्रशंसनीय है जो राग-द्वेषसे परे हो। जिनके रागद्वेषकी कलुषता है वह चाहे बृहस्पति तुल्य भी विद्वान् क्यों न हों ईश्वराज्ञाके प्रतिकूल होनेसे अधोमार्गको ही जानेवाला है। आपकी मान्यताके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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