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________________ जैनत्वका अपमान यथार्थमें यदि ऐसा है तो कार्यत्व हेतु व्यभिचारी हुआ। यदि मेरा कहना सत्य है तो आपका हम पर कुपित होना न्यायसंगत नहीं।' श्री नैयायिकजी महाराज बोले-'शास्त्रार्थ करने आये हो ?' मैंने कहा-'महाराज ! यदि शास्त्रार्थ करने योग्य पाण्डित्य होता तो आपके सामने शिष्य बननेकी चेष्टा क्यों करता ? खेदके साथ कहना पड़ता है कि आप जैसे महापुरुष भी ऐसे-ऐसे शब्दोंका प्रयोग करते हैं जो साधारण पुरुषके लिये भी सर्वथा असंगत है। वही मनुष्यता आदरणीय होती है जिसमें शान्तिमार्गकी अवहेलना न हो। आप तर्कशास्त्रमें अद्वितीय विद्वान् है फिर मेरे साथ इतना निष्ठुर व्यवहार क्यों करते हैं ? नैयायिकजी तेवरी चढ़ाते हुए बोले-'तुम बड़े धीठ हो, जो कुछ भी भाषण करते हो उसमें ईश्वरके अस्तित्वका लोप कर एक नास्तिक मतकी ही पुष्टि करते हो। मैंने ठीक ही तो कहा है कि तुम नास्तिक हो-वेदनिन्दक हो, तुमको विद्या पढ़ाना सर्पको दुग्ध और मिश्री खिलानेके सदृश होगा। गुड़ और दुग्ध पिलानेसे क्या सर्प निर्बिष हो सकता है ? तुम जैसे हठग्राही मनुष्योंको न्यायविद्याका पण्डित बनाना नास्तिकमत की पुष्टि करना है। जानते हो-ईश्वरकी महिमा अचिन्त्य है। उसीके प्रभावसे यह सब व्यवहार चल रहा है। यदि यह न होता तो आज संसारमें नास्तिक मतकी प्रभुता हो जाती। नैयायिकजी यह कहकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, डेस्क पर हाथ पटकते हुए जोरसे बोले-'हमारे स्थानसे निकल जाओ। मैंने कहा-'महाराज ! आखिर जब आपको मुझसे संभाषण करनेकी इच्छा नहीं तब अगत्या जाना ही श्रेयस्कर होगा। किन्तु खेद होता है कि आप अद्वितीय तार्किक विद्वान् होकर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। मेरी समझमें तो यही आता है कि आप स्वयं ईश्वरको नहीं मानते और हमसे कहते हो कि तुम नास्तिक हो। जब ईश्वरकी इच्छाके बिना कोई कार्य नहीं होता तब हम क्या ईश्वरकी इच्छाके बिना ही हो गये ? नहीं हुए तब आप जाकर ईश्वरसे झगड़ा करो कि आपने ऐसे-ऐसे नास्तिक क्यों बनाये जो कि आपका अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते। आप मुझसे कहते हैं कि चूँकि तुम वेदनिन्दक हो अतः नास्तिक हो, परन्तु अन्तर्दृष्टिसे परामर्श करने पर मालूम हो सकता है कि हम वेदके निन्दक हैं या आप ? वेद में लिखा है-'मा हिंस्यात्सर्वभूतानि' अर्थात् यावन्तः प्राणिनः सन्ति ते न हिंस्याः-जितने प्राणी हैं वे अहिंस्य हैं। अब आप ही बतलाइये कि जो मत्स्य-मांसादिका भक्षण करें, देवताको बलिप्रदान करें और श्राद्धमें पितृतृप्तिके लिये मांसपिण्डका दान करें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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