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________________ मेरी जीवनगाथा 60 बीत गई, प्रातःकाल सोकर उठा। पण्डितजीके चरणोंमें पड़ गया और बड़े दुःखके साथ कहा कि महाराज ! मुझसे बड़ी गलती हुई। जैनत्वका अपमान यहाँ पर कुछ दिन रहकर संवत् १६६१ में बनारस चला गया, यहाँ पर धर्मशालामें ठहरा। बिना कार्यके कुछ उपयोग स्थिर नहीं रख सका-यों ही भ्रमण करता रहा। कभी गंगाके किनारे चला जाता था और कभी मन्दाकिनी (मैंदागिनी) परन्तु फिर भी चित्तको शान्ति नहीं मिलती थी। उस समय क्वीन्स कालेजमें न्यायके मुख्य अध्यापक जीवनाथ मिश्र थे। बहुत ही प्रतिभाशाली विद्वान् थे। आपकी शिष्यमण्डलीमें अनेक शिष्य प्रखर बुद्धिके धारक थे। एक दिन मैं उनके निवास स्थान पर गया और प्रणाम कर महाराजसे निवेदन किया कि 'महाराज ! मुझे न्यायशास्त्र पढ़ना है यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके बताये हुए समयसे आपके पास आया करूँ। मैंने एक रुपया भी उनके चरणोंमें भेंट किया। पण्डितजीने पूछा-'कौन ब्राह्मण हो ?' सुनते ही अंतरंगमें चोट पहुँची। मनमें आया-'हे प्रभो ! यह कहाँकी आपत्ति आ गई ?' अवाक् रह गया, कुछ उत्तर नहीं सूझा। अन्तमें निर्भीक होकर कहा-'महाराज ! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ और न क्षत्रिय हूँ, वैश्य हूँ, यद्यपि मेरा कौलिक मत श्रीरामका उपासक था-सृष्टिकर्ता परमात्मामें मेरे वंशके लोगोंकी श्रद्धा थी और आज तक चली भी आ रही है परन्तु मेरे पिताकी श्रद्धा जैनधर्ममें दृढ़ हो गई तथा मेरा विश्वास भी जैनधर्ममें दृढ़ हो गया। अब आपकी जो इच्छा हो, सो कीजिये। श्रीमान् नैयायिकजी एकदम आवेगमें आ गये और रुपया फेंकते हुए बोले-'चले जाओ, हम नास्तिक लोगोंको नहीं पढ़ाते । तुम लोग ईश्वरको नहीं मानते हो और न वेदमें ही तुम लोगोंकी श्रद्धा है, जाओ यहाँसे। मैंने कहा-'महाराज ! इतना कुपित होनेकी बात नहीं। आखिर हम भी तो मनुष्य हैं, इतना आवेग क्यों ? आप तो विद्वान् हैं साथ ही प्रथम श्रेणीके माननीय विद्वानोंमें मुख्यतम हैं। आप ही इसका निर्णय कीजिये-जब कि सृष्टिकर्ता है तब उसने ही तो हमको बनाया है। तथा हमारी जो श्रद्धा है उसका भी निमित्तकारण वही है। कार्यान्तर्गत हमारी श्रद्धा भी तो एक कार्य है।. जब कार्यमात्रके प्रति ईश्वर निमित्तकारण है तब आप हमको क्यों धूसते हो ? ईश्वरके प्रति कुपित होना चाहिए। आखिर उसने ही तो अपने विरुद्ध पुरुषोंकी सृष्टिकी है या फिर यों कहिये कि हम जैनोंको छोड़कर अन्यका कर्ता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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