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पं. ठाकुरदासजी
कहा-'हाथसे भोजन मत बनाया करो, तुम्हारी माँ बना देंगी। माँजीने कहा-का बेटा ! क्यों कष्ट उठाते हो ? हमारे यहाँ भोजन कर लिया करो। मैंने कहा-माँजी ठीक है परन्तु आपके यहाँ न तो पानी छाना जाता है और न ढीमरके जलका परहेज ही है। साथ ही हमें शामको भोजन न मिल सकेगा।' माँजीने बड़े प्रेमसे उत्तर दिया-'जिस प्रकार तुम कहोगे उसी प्रकार भोजन बना दूंगी और हम लोग भी रात्रिका भोजन शामको ही कर लिया करेंगे अतः तुम्हें शामका भोजन मिलनेमें कठिनाई न होगी।' लाचार मैंने उनके यहाँ भोजन करना स्वीकार कर लिया।
एक दिनकी बात है-पण्डितजीका एक शिष्य भाँग पीता था, उसने मुझसे कहा कि 'महादेवजीके साक्षात् दर्शन करना हो तो तुम भी एक गोली खालो।' मैं उसकी बातोंमें आ गया। वह बोला कि 'भाँगका नशा आनेके बाद ही महादेवजीका साक्षात् दर्शन होने लगेगा। मैंने विचार किया कि मुझे श्रीजिनेन्द्रदेवके साक्षात् दर्शन होने लगेगें। ऐसा विचार कर मैंने भाँगकी एक गोली खा ली। एक घण्टा बाद जब भाँगका नशा आ गया तब पुस्तक लेकर पण्डितजीके पास पढ़नेके लिए गया। वहाँ जाकर पण्डितजीसे बोला'महाराज ! आज तो पढ़नेको चित्त नहीं चाहता, सोना माँगता हूँ।' पण्डितजी महाराजने ऐसे असमंजस वचन सुन कर निश्चय कर लिया कि आज यह भी उस भँगेड़ीके चक्करमें आ गया है। उन्होंने कहा-'सो जाओ।' मैंने कहा-'अच्छा जाता हूँ, सोनेकी चेष्टा करूँगा।'
जाकर खाटपर लेट गया। पण्डितजीने माँजीसे कहा-'देखो, आज इसने भँग पी ली है, अतः इसे दही और खटाई खिला दो। मैंने उस नशाकी दशामें भी विचार किया कि मैं तो रात्रिके समय पानीके सिवाय कुछ लेता नहीं, पर आज प्रतिज्ञा भंग होती दिखती है। उक्त विचार मनमें आया था कि पण्डितजी महाराज दही और खटाई लेकर पहुँच गये तथा कहने लगे-'लो, यह खटाई व दही खा लो, तुम्हारा नशा उतर जावेगा। मैंने कहा'महाराज ! मैं तो रात्रिके समय पानीके सिवाय कुछ भी नहीं लेता, यह दही-खटाई कैसे लूँ ?' पण्डितजीने डाँटते हुए कहा-“भँग पीनेको जैनी न थे।' मैंने कहा-महाराज मैं शास्त्रार्थ नहीं करना चाहता, कृपा कर मुझे शयन करने दीजिये। पण्डितजी विवश होकर चले गये, मैं पछताता हुआ पड़ा रहा। बड़ी गलती की जो भँग पीकर पण्डितजीकी अविनय की। किसी तरह रात्रि
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