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________________ मेरी जीवनगाथा 58 रहने दीजिये और अपने अन्तर्गत हृदयसे परामर्श कीजिये कि हिंसा और अहिंसामें संसार बन्धनकी छेदन करनेकी शक्ति किसमें है ? जो आपका हृदय माने उसी पर श्रद्धा रखिये, शंकित श्रद्धाको हटाइये ।' महाराज वृद्ध थे, बोले- 'बेटा! तुम ठीक कहते हो, परन्तु हमारी जो श्रद्धा है वह कुलपरम्परासे चली आ रही है। इसके सिवाय हमारे यहाँ यह व्यवहार भी चला आता है कि नवदुर्गामें बलिदान करना। इन दोनोंके साथ आगम भी मिलता है, अतः इसे हम एकदम त्याग देवें, यह कठिन है ! तुम्हारी बातको हम आदरकी दृष्टिसे देखते हैं- इतना ही बहुत समझो। तुम्हें उचित तो यह था कि अध्ययन करते, इस व्यर्थके विवादमें न पड़ते।' मैंने कहा'महाराज ! यह विवाद व्यर्थ नहीं । आखिर पठन-पाठनका यही तो प्रयोजन है कि हिताहितको पहिचानना, यदि यह न पहिचान सके तो पढ़नेसे क्या लाभ ? उदर-पोषणके लिये विद्याका अर्जन नहीं। वह तो काक-मार्जार आदि भी कर लेते हैं । मनुष्य जन्म पाकर यदि उनका प्रयोजन उदरपोषण तक ही सीमित रक्खा तो आप ही बतलाइये उसकी विशेषता क्या रही ? मनुष्यजन्म तो मोक्षका मापक है । उसके द्वारा इन हिंसादि कार्योंका पोषण करना कहाँका न्याय है ?' बहुत कुछ बात हुई पर उनका प्रभाव न हमपर पड़ा और न हमारा प्रभाव उनपर पड़ा। अन्तमें मैंने यही निश्चय किया कि यहाँसे अन्यत्र चला जाना ही उत्तम है । वश, क्या था ? वहाँसे चलकर सिमरा चला आया । पं. ठाकुरदासजी 1 संवत् १६६० की बात है। बाईजीसे आज्ञा लेकर श्रीमान् पं. ठाकुरदासजीके यहाँ हरिपुर चला गया । यह ग्राम इलाहाबादसे पूर्व झाँसीसे पन्द्रह मीलपर हंडिया तहसीलमें है । पण्डितजीका मेरे ऊपर अतिस्नेह था, अतः आनन्दसे प्रमेयकमलमार्तण्ड पढ़ने लगा । सिद्धान्तकौमुदीका भी कुछ अंश पढ़ा था। पण्डितजी इसी समय योगवाशिष्ठकी हिन्दी टीका करते थे। मैंने भी कुछ उसे पढ़ा। वेदान्तविषयक चर्चा उसमें थी । एक जज साहब थे, जो कि संसारसे विरक्त थे। उन्होंने हृषीकेशमें एक आश्रम बनवाया जिसमें एक लाख रुपया लगाया । एकान्तमें धर्मसाधनकी रुचि रखनेवालोंको वहाँ आश्रय मिलता था। पं. ठाकुरदासजीका उक्त जज साहबसे बहुत स्नेह था । पण्डितजीके घरपर मैं तीन या चार मास रहा। एक दिन पण्डितजीने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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