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________________ श्री दुलार झा जहाँ प्राणीका बध धर्म बताया जावे वहाँ दयाका अभाव निश्चित है, जहाँ दयाका अभाव है। वहाँ धर्मका अंश नहीं, जहाँ धर्म नहीं वहाँ संसारसे मुक्ति नहीं । अतः महाराज ! आप इतने विद्वान् होकर भी इन असत् कर्मोंकी पुष्टि करते हैं - यह सर्वथा अनुचित है।' महाराज बोले- 'बेटा ! तुमने अभी वेदादि शास्त्रोंको देखा नहीं, इससे तुम्हारी बुद्धि विकाससे रहित है। जिस दिन तुम विद्वान् हो जाओगे उस दिन आपसे आप इस बलिप्रथाके पोषक हो जाओगे। देखो, शास्त्रोंमें ही लिखा है'यज्ञार्थं पशवः सृष्टा यज्ञार्थं पशुघातनम् । अतस्त्वां पातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।।' Jain Education International 57 इत्यादि बहुतसे प्रमाण हैं, तुम व्यर्थ शंका मत करो।' मैंने कहा'महाराज ! शास्त्रकी कथा छोड़िये, परन्तु अनुभवसे बताइये यदि मैं एक सुई आपके अंगमें छेदूँ तो आपकी क्या दशा होगी ? जरा उसका अनुभव कीजिये, पश्चात् बलि प्रथाकी पुष्टि कीजिये । चूँकि संसार भोला है, अतः लोगोने उसकी वञ्चनाके लिए ऐसे समर्थक बाक्यों द्वारा अनर्थकारी पापपोषक शास्त्रोंकी रचना की है। लोगोंका यह प्रयत्न केवल अपनी आजीविका सिद्ध करनेके लिये रहा है। देखिये, उन्हीं शास्त्रोंमें यह वाक्य भी तो मिलता है 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ।' क्या 'सर्व' के अन्दर बकरा नहीं आता ? इस संसारमें अनादिकाल से अनेक प्रकारके दुःख भोगते-भोगते बड़ी दुर्लभतासे यह मनुष्य जन्म प्राप्त हो सका है। इसे यों ही हिंसादि कार्योंमें लगा देना आप जैसे महान् विद्वान्‌को क्या उचित है ? मैं तो आपके सामने तुच्छ बुद्धिवाला बालक हूँ । आप हीके प्रसादसे मेरी न्यायशास्त्रमें पढ़नेकी रुचि और आपकी पाठनशैलीको देखकर आपमें मेरी अत्यन्त श्रद्धा हो गई । परन्तु आपकी प्रवृत्ति देख मेरा हृदय कम्पित हो उठता है और हृदयमें यह भाव आता है कि मूर्ख रहना अच्छा किन्तु हिंसाको पुष्ट करनेवाले अध्यापकसे विद्यार्जन करना उत्कृष्ट नहीं । यद्यपि विद्याका अर्जन करना श्रेष्ठ है, क्योंकि विद्याके द्वारा ही ज्ञानका लाभ होता है और ज्ञानसे ही सब पदार्थोंका परिचय होता है - यह सब कुछ है परन्तु आपकी श्रद्धा देख आपमें मेरी श्रद्धा नहीं रही। आप इन वाक्योंको श्रवणकर मेरे प्रति कुपित होंगे, पर कुपित होनेकी बात नहीं। आप मेरे विद्यागुरु हैं । आपके द्वारा मेरा उपकार हुआ है । मेरा कर्त्तव्य है कि मैं आपकी विपरीत श्रद्धाको पलट दूँ, यद्यपि मेरे पास वह तर्क व प्रमाण नहीं है जिसके द्वारा आपको यथार्थ उत्तर दे सकूँ । परन्तु मेरी श्रद्धा इतनी सरल और विशुद्ध है कि हिंसा द्वारा कालत्रयमें भी धर्म नहीं हो सकता । आप हिंसा विधायक आगमोंको एकबार आलमारीमें ही For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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