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मेरी जीवनगाथा
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वन्दना करूँगा।
मैंने प्रायः बहुतसे सिद्ध-क्षेत्रोंकी वन्दना की है, परन्तु परिणामों की जो निर्मलता यहाँ हुई उसकी उपमा अन्यत्र नहीं मिलती। यह सब ऊहापोह होनेके बाद सो गये और प्रातःकाल प्रभु पार्श्वनाथके दर्शनपूजन कर गिरेटीको प्रस्थान कर दिया। यहाँसे रेलमें बैठकर मैं मऊ चला गया और साथी खुरजाको। श्रीशिखरजीकी मेरी यह यात्रा संवत् १६५६ में हुई थी।
श्री दुलार झा मऊसे श्रीबाईजी के यहाँ सिमरा पहुँच गया। बाईजीने कहा-'बेटा ! कहाँसे आये ?' मैंने कहा-'खुरजासे श्रीगिरिराजकी वन्दनाको गया था वहाँसे आ रहा हूँ।' उन्होंने कहा-'बड़ा अच्छा किया, अब कुछ दिन यहीं रहो और शास्त्रस्वाध्याय करो।' मैंने डेढ़ मास सिमरामें बिताया।
अनन्तर यह सुना कि टीकमगढ़में मैथिल देशके बड़े भारी विद्वान् दुलार झा राजाके यहाँ प्रमुख विद्वान् हैं और न्यायशास्त्रके अपूर्व विद्वान् हैं। मैं उनके पास चला गया और टीकमगढ़में श्री नन्दकिशोरजी वैद्यके यहाँ भोजन करने लगा। उस समय वहाँ ब्राह्मण विद्वानोंका बड़ा भारी समागम था।
दुलार झा बहुत ही व्युत्पन्न और प्रतिभाशाली विद्वान थे। न्यायमें तो उनके सदृश विद्वान् भारतवर्षमें दो या तीन ही निकलेंगे। उन्होंने लगातार पच्चीस वर्ष तक नवद्वीप (नदियाशान्तिपुर) में न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था। उनके समक्ष शास्त्रार्थमें अच्छे-अच्छे विद्वान् परास्त हो जाते थे।
____ मैं एक दिन उनके पास गया और उनसे बोला कि-महाराज मैं आपसे न्यायशास्त्र पढ़ना चाहता हूँ। उन्होंने पूछा-'क्या पढ़े हो ?' मैंने कहा-'काशीकी मध्यमाका प्रथमखण्ड न्यायका पढ़ा हूँ और उसमें उत्तीर्ण भी हो गया हूँ। उन्होंने कहा-'अच्छा, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव ग्रंथ लाओ। मैंने कहा'महाराज ! मैं तो नाम सुनकर ही घबड़ा गया हूँ, अध्ययन तो दूर रहा। वे बोले "चिन्ता मत करो हम तुम्हें अनायास पढ़ा देवेंगे।'
दूसरे दिनसे उनके पास मैंने मुक्तावली, पञ्चलक्षणी, व्यधिकरणादि ग्रंथोंका अध्ययन किया। उनकी मेरे ऊपर बहुत अनुकम्पा थी, परन्तु उनके एक व्यवहारसे मेरी उनमें अरुचि हो गई। चूंकि वे मैथिल थे, अतः बलिप्रथाके पोषक थे-देवीको बकरा चढानेका पोषण करते थे। मैंने कहा-'जीवोंकी रक्षा करना ही तो धर्म है। जहाँ जीवघातमें धर्म माना जावे वहाँ जितनी भी बाहृा क्रियाएँ हैं सब विफल हैं। धर्म तो वह पदार्थ है जिसके द्वारा यह प्राणी संसार बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
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