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________________ मेरी जीवनगाथा 50 धर्मसाधनका उत्तम निमित्त है। परन्तु अब उन स्थानोंपर आजीविकाके निमित्त लोगोंने अनेक असत्य कल्पनाओंके द्वारा पुण्यसंचय करनेका लेश भी नहीं रहने दिया है। कहीं नाई, कहीं पिण्ड सामग्रीवाले और कहीं टैक्स वसूल करनेवाले पण्डे ही नजर आते हैं। इन सबकी खींचतानसे बेचारे यात्रीगण दुःखी हो जाते हैं। जो हो, भारतवर्षके जीवोंमें अब भी धर्मकी श्रद्धा निष्कपट रूपसे विद्यमान है। ___ हमारा जो साथी था, उसने कहा-'चलो हम तुम भी स्नान कर लें, मार्गकी थकावट मिट जायगी। मैंने कहा-'आपकी इच्छा। अन्तमें हम दोनोंने गंगास्नान किया। घाटके पण्डेके पास वस्त्रादि रख दिये। जब स्नान कर चुका तब पंडा महाराजने दक्षिणा माँगी। हमने कहा-'महाराज ! हम तो जैनी हैं। पण्डाने डाँट दिखाते हुए कहा कि 'क्या जैनी दान नहीं देते ?' मैंने कहा-'देते क्यों नहीं ?' परन्तु आप ही बतलाइये-आपको कौनसा दान दिया जाय ? आप त्यागी तो हैं नहीं जिससे कि पात्रदान दिया जावे। करुणादानके पात्र मालूम नहीं होते क्योंकि आपके शरीरमें रईसोंका प्रत्यय होता है, फिर भी यदि आप नाराज होते हैं तो लीजिये यह एक रुपया है। पण्डाने कहा 'बात तो ठीक है परन्तु हमारा यही धन्धा है। तुम लोग खुश रहो, तुमने हमारे वचनको व्यर्थ नहीं जाने दिया। यदि तुमको दुःख हो तो यह रुपया ले जाओ। यहाँ ३) या ४) की कोई बात ही नहीं है। पनपियाईमें चले जाते हैं।' नहीं, महाराज ! क्लेश की कोई बात नहीं। परन्तु यह आजीविका आप जैसे मनुष्योंको शोभाप्रद नहीं है। आगे आपकी इच्छा'....यह मैंने कहा। पण्डाजी बोले-'भाई यह कलिकाल है, यहाँ तो यही कहावत चरितार्थ होती है कि 'फुट्ठ देवी ऊँट पुजारी।' यहाँ जो दान देनेवाले आते हैं वे सात्त्विकवृत्तिके तो आते नहीं। जो महापातकी होते हैं वे ही अपने पापको दूर करनेके लिये आते हैं। अब तुम्हीं बताओ यदि हम उनका दान अंगीकार न करें तो उनके उद्धारका कौनसा मार्ग है ? मैंने कहा-'महाराज ! अब जाता हूँ, अपराध क्षमा करना।' पण्डा महाराज पुनः बोले-अच्छा, अपराधकी कौनसी बात है ? संसारमें यही चलता है। जो अत्यन्त निर्मल परिणामी है उन्हें तीर्थों पर भटकनेकी आवश्यकता नहीं। जिसके मल नहीं वह स्नान क्यों करे? जिसने पाप नहीं किया वह क्यों किसीके आराधनमें अपना काल लगावे ? चूंकि भगवानको पतितपावन कहते हैं, अतः जरा सोचो, जिसने पाप ही नहीं किया वह पतितपावनके पास भक्ति आदि करनेकी चेष्टा क्यों करेगा ? तुम जो गिरिराजकी यात्राके लिये जा रहे हो सो इसलिये न कि हमारे पातक दूर हों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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