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________________ 48 मेरी जीवनगाथा शिखरजी अवश्य ही जाना चाहिये। कुछ देर बाद विचार आया कि कैसे जाऊँ ? गर्मी के दिन हैं, एकाकी जानेमें अनेक आपत्तियाँ हैं । मैं विचार - मग्न ही था कि सेठ मेवारामजी आ गये। आपने सरल स्वभावसे पूछा-'चिन्तित क्यों हो ? कौन-सी आपत्ति आ गई ? हमारे विद्यमान होते हुए चिन्ता करनेकी क्या आवश्यकता है ? हम सब प्रकार सहायता करनेको सन्नद्ध हैं।' मैंने कहा- 'यह तो आपकी सज्जनता है, आपकी सहायता से ही तो हमारा संस्कृत - विद्यामें प्रवेश हुआ तथा अन्य सब प्रकारके सुभीते प्राप्त हैं । परन्तु आज दोपहर बाद ऐसा स्वप्न आया कि उसका फल मैंने मृत्यु समझ रक्खा है। यतः पर्यायका कुछ भरोसा नहीं, अतः मनमें यह भावना होती है कि एक बार गिरिराज शिखरजीकी वन्दना अवश्य कर आऊँ । परन्तु एकाकी होनेसे भयभीत हूँ-कैसे जाऊँ ?' आपने कहा - 'चिन्ता मत करो, हम लोग शीतकालमें यात्राके निमित्त चलेंगे; पूर्वकी सब यात्रा करेंगे, आप भी आनन्दसे सभी यात्रा करना; हमारे समागममें कष्ट न होगा।' मैंने कहा - 'आपका कहना अक्षरशः सत्य है परन्तु उतने दिनके अन्दर यदि मेरी आयु पूर्ण हो जावेगी तो मनकी बात मनमें ही रह जावेगी । किसी नीतिकारने कहा है कि 'काल करै सो आज कर आज करै सो अब्ब । पलमें परलय होयगा बहुरि करैगा कब्ब ।।' अथवा यह भी उक्ति है कि 'करले सो काम भजले सो राम ।' मुझे बहुत ही अधीरता हो रही है, अतः मैं गिरिराजको जाऊँगा ही ।' श्रीमान् सेठजी बोले- 'हम तो आपके हितकी कहते हैं, गर्मीके दिन हैं, १८ मीलकी यात्रा कैसे करोगे ? मुझे आपके ऊपर दया आती है; आशा है आप हमारी कथाको प्रमाणीभूत करेंगे।' मैंने कहा - 'आप अनुभवी पुरुष हैं, योग्य सम्मति आपकी है किन्तु मुझे यह विश्वास है कि जहाँसे अनन्तानन्त मुनि निर्वाण लाभ कर चुके हैं, इस एक हुण्डावसर्पिणी कालको छोड़कर अनन्त चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी जो निश्चित निर्वाणभूमि है, तथा वर्तमान तेबीसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वप्रभु जहाँसे निर्वाणधामको प्राप्त हुए हैं और जिनके नामसे आज पर्वतकी प्रसिद्धि हो रही है उसी गिरिराजकी वन्दना के भाव हमारे हुए हैं तो क्या इतना पुण्य संचय न हुआ होगा कि जिस दिन हमारी यात्रा होगी उनके पहले रात्रिको मेघराज कृपा करेंगे ? मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि यात्राके ४ घंटा पहले अखंड जलधारा गिरेगी ।' श्री सेठजी हँस गये और हँसते-हँसते For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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