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शिखरजी के लिए प्रस्थान
थे-आप व्याकरण, न्याय तथा साहित्यके अपूर्व विद्वान् थे। श्रीमान् स्वर्गीय मेवारामजी साहब राणीवाले संस्कृत-विद्याके अपूर्व प्रेमी थे। आपने व्याकरणमें मध्यमा परीक्षा तक अध्ययन किया था। साहित्यमें भी आपको अपूर्व गति थी। शास्त्रप्रवचनमें मुख्य थे। व्याख्यानकला तो आपकी बहुत ही प्रसिद्ध थी। आपने कई बार आर्यसमाजके पण्डितोंके साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। आप छात्रोंकी उन्नतिमें सदैव प्रयत्नशील रहते थे। आपके चाचा श्रीअमृतलालजी धर्मशास्त्रके प्रखर विद्वान थे। श्री पदमराजजी आपके ही चचेरे भाई थे, जो कि हिन्दू महासभाके सेक्रेटरी थे।
खुरजामें एक ब्राह्मणोंकी भी संस्कृत पाठशाला थी जिसमें पं. जियालालजी अध्ययन कराते थे। उस समय वहाँ २०० छात्र संस्कृतका अध्ययन करते थे। छात्रोंको सब प्रकारकी सुविधा थी। - इसी समय वहाँ एक नवीन जैन मन्दिर बना और उसकी प्रतिष्ठा बड़े समारोहके साथ हुई । प्रायः प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सभी पण्डित इसमें आये थे। १००००० जैनी भाई होंगे, जिनका सत्कार सेठ मेवारामजीकी ओरसे हुआ था।
यहाँ पर मैं दो वर्ष पढ़ा। बनारसकी प्रथमा परीक्षा तथा न्यायमध्यमाका प्रथम खण्ड यहींसे पास किया। यद्यपि मुझे यहाँ सब प्रकारकी सुविधा थी, परन्तु फिर भी खुरजा छोड़ना पड़ा।
शिखरजीके लिए प्रस्थान एक दिनकी बात है। मैंने एक ज्योतिषीसे पूछा-'बतलाइये, मैंने न्यायमध्यमाके प्रथम खण्डमें परीक्षा दी है, पास हो जाऊँगा ?' ज्योतिषीने कहा-'पास हो जाओगे पर यह निश्चित है कि तुम वैशाख सुदी १३ के ६ बजेके बाद खुरजा नहीं रह सकोगे-चले जाओगे। मैंने कहा-'आपने कैसे जान लिया ?' ज्योतिर्विद्यासे जान लिया.....उन्होंने गर्वके साथ उत्तर दिया। 'मैं आपके निर्णयको मिथ्या कर दूँगा'...मैंने हँसते हुए कहा। 'कर देना' कहकर ज्योतिषीजी चले गये।
उस दिनसे मुझे निरन्तर यह चिन्ता रहने लगी कि वैशाख सुदी ११ की कथाको मिथ्या करना है। वैशाख सुदी १२ के दोपहरका समय था, कुछ लू चल रही थी। सब ओर सन्नाटा था। मैं कमराके भीतर सो रहा था। अचानक बहुत ही भयानक स्वप्न आया। निद्रा भंग होते ही मनमें चिन्ता हुई कि यदि असमयमें मरण हो जावेगा तो शिखरजीकी यात्रा रह जावेगी, अतः
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