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________________ मेरी जीवनगाथा 46 धर्मशास्त्र तथा सदाचारकी परिपाटी चलेगी। मैं तुम्हें दो रुपया मासिक अपनी ओरसे दुग्ध-पानके लिये देता हूँ। मैं मथुरा चला गया। __ आज जो जयधवलादि ग्रन्थोंकी भाषा-टीका हो रही है वह आपके द्वारा व्युत्पन्न-शिक्षित विद्वानोंके द्वारा ही हो रही है। इसके प्रधान कार्यकर्ता या तो आपके अन्यतम शिष्य हैं या आपके शिष्योंके शिष्य हैं। वह आपका ही भगीरथ प्रयत्न था जो आज भारतवर्षके जैनियोंमें करणानुयोगका प्रचार हो रहा है। आप केवल विद्वान् ही नहीं थे। सदाचारी भी अद्वितीय थे। आपका मकान आगरामें था। म्युनिसिपल जमादारने शौचगृहके बनानेमें बहुत बाधा दी। यदि आप उसे १०) की घूस दे देते तो मुकदमा न चलता परन्तु पण्डितजीके घूस देनेका त्याग था। मुकदमा चला। बड़ी परेशानी उठानी पड़ी। सैंकड़ों रुपयोंका व्यय हुआ, परन्तु श्री पण्डितजीने घूस नहीं दी। अन्तमें आप विजयी हुए। आपमें सहनशीलता भी पूर्ण थी। आपकी गृहिणीका स्वभाव कुछ उग्र था परन्तु आपने उसके ऊपर कभी भी रोष नहीं किया। आपके एक सुपुत्र और सुपुत्री थी। आपके ही प्रयत्नके फलस्वरुप मुरैना विद्यालयकी स्थापना हुई थी। यह वह विद्यालय है जिसके द्वारा आज भारतवर्षमें गोम्मटसारादि ग्रन्थोंके मर्मज्ञ विद्वानोंका सद्भाव हो रहा है। आपके सहवासमें श्रीमान् पं. ठाकुरदासजी ब्रह्मचारी सर्वदा मुरैना रहते थे। ___ आप एक बार कलकत्ता गये। वहाँ आमंत्रित महती विद्वन्मण्डलीके समक्ष आपने जैनधर्मके तत्त्वोंका इतना सुन्दर विवेचन किया कि उसे सुनकर धुरन्धर विद्वान् चकित रह गये और उन विद्वानोंने आपको 'न्यायवाचस्पति' की पदवी प्रदान की। अस्तु, आपके विषयमें कहाँ तक लिखू। आपने मेरा जो उपकार किया है उसे मैं आजन्म नहीं भूल सकता। मथुरासे खुरजा मैं जिस समय मथुरा विद्यालयमें अध्ययन करता था उस समय वहाँपर न्यायाचार्य माणिकचन्द्र भी अध्ययन करते थे। साथ ही श्रीमान् लालारामजी आदिका सहवास था। श्रीमान् पं. नरसिंह दासजी शास्त्री धर्मशास्त्रका अध्ययन कराते थे। आप बहुत ही योग्य विद्वान् थे। आपने चरणानुयोगके अनेक शास्त्रोंका अवलोकन किया था। प्रतिष्ठाचार्य भी आप अद्वितीय थे। मैं यहाँ दो वर्ष रहा। पश्चात कारणवश खुरजा चला गया। उस समय जैनसमाजमें श्रीराणीवालोंकी कीर्ति दिगदिमन्त तक फैल रही थी। आपके यहाँ संस्कृत पढ़ानेका पूर्ण प्रबन्ध था। श्रीमान् चण्डीप्रसादजी बहुत बड़े भारी विद्वान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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