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________________ मेरी जीवनगाथा 44 गुरु गोपालदासजी वरैया चौरासीम जो मन्दिर है उसे दुर्ग कहा जावे तो अत्युक्ति न होगी। मन्दिरमें जो अजितनाथजीकी प्रतिमा है वह कितनी अनुपम और सुन्दर है इनको देखनेसे ही अनुभव होता है। मन्दिरका चौक इतना बड़ा है कि उसमें पाँच हजार आदमी एक साथ बैठ सकते हैं। मन्दिरके उत्तर भागमें एक अनुपम उद्यान है, दक्षिणमें यमुनाकी नहर, पूर्वमें शस्यसम्पन्न क्षेत्र और पश्चिममें विद्यालयका मकान है। मन्दिर के तीन ओर धर्मशालाओंकी बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ शोभा दे रही हैं। कहाँ तक कहें ? भारतवर्षमें यह मेला अपनी शानका एक ही है। यहीं पर श्री दि. जैन महाविद्यालयकी भी स्थापना श्रीमान् राजा साहबके करकमलों द्वारा हो चुकी थी। उसके मन्त्री श्रीमान् पं. गोपालदासजी वरैया आगरा निवासी थे। आपका ध्येय इतना उच्चतम था कि चूंकि जैनियोंमें प्राचीन विद्या व धार्मिक ज्ञानकी महती त्रुटि हो गई है, अतः उसे पुनरुज्जीवित करना चाहिये। आपका निरन्तर यही ध्येय रहा कि जैनधर्ममें सर्व विषयके शास्त्र हैं अतः पठनक्रममें जैनधर्मके ही शास्त्र रक्खे जावें। आपका यहाँ तक सदाग्रह था कि व्याकरण भी पठनक्रममें जैनाचार्यकृत ही होना चाहिये। यही कारण था कि आपने प्रथमाके कोर्समें व्याकरणमें कातन्त्रको, न्यायमें न्यायदीपिकाको और साहित्यमें चन्द्रप्रभचरितको ही स्थान दिया था। आपकी तर्कशैली इतनी उत्तम थी कि अन्तरंग कमेटीमें आपका ही पक्ष प्रधान रहता था। आपका शिक्षा खातेसे इतना गाढ प्रेम था कि आगरा रहकर भी विद्यालयका कार्य सुचारुरूप से चलाते थे। यद्यपि आप उस समय अधिकांश बम्बईमें रहते थे, फिर भी जब कभी आगरा आनेका अवसर आता, तब मथुरा, विद्यालयमें अवश्य पदार्पण करते थे। स्पष्ट शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि मथुरा, विद्यालयकी स्थापना आपके ही प्रयत्नसे हुई थी। __ आप धर्मशास्त्रके अपूर्व विद्वान् थे। केवल धर्मशास्त्रके ही नहीं, द्रव्यानुयोगके भी अपूर्व विद्वान् थे। पञ्चाध्यायीके पठन-पाठनका प्रचार आप ही के प्रयत्नका फल है। इस ग्रन्थके मूल अन्वेषक श्रीमान् पं. बलदेवदासजी हैं। उन्होंने अजमेरके शास्त्रभण्डारमें इसे देखा और श्रीमान् पं. गोपालदासको अध्ययन कराया । अनन्तर उसका प्रचार श्री पण्डितजीने अपने शिष्योंमें किया। इसकी जो भाषा-टीकाएँ हैं वे आपके ही शिष्य श्री पं. मक्खनलालजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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