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पं. गोपालदासजी वरैयाके सम्पर्कमें
इतनी शान्ति होती है तब जिनके हृदयमें कलुषता नहीं उनकी शान्ति का अनुमान होना ही दुर्लभ है।
इस प्रकार मेलामें जैनधर्मकी अपूर्व प्रभावना हुई इसका श्रेय श्रीमान् स्वर्गीय सेठ मूलचन्द्रजी सोनी अजमेरवालोंके ही भाग्यमें था। द्रव्यका होना तो पूर्वोपार्जित पुण्योदयसे होता है परन्तु उसका सदुपयोग बिरले ही पुण्यात्माओंके भाग्यमें होता है। जो वर्तमानमें पुण्यात्मा है वही मोक्षमार्गके अधिकारी हैं। सम्पत्ति पाकर मोक्षमार्गका लाभ जिसने लिया उसी रत्नने मनुष्य जन्मका लाभ लिया। अस्तु, यह मेलाका वर्णन हुआ।
पं. गोपालदासजी वरैयाके सम्पर्कमें बम्बई परीक्षाफल निकला। श्रीजीके चरणोंके प्रसादसे मैं परीक्षामें उत्तीर्ण हो गया। महती प्रसन्नता हुई। श्रीमान् स्वर्गीय पण्डित गोपालदासजीका पत्र आया कि मथुरामें दिगम्बर जैन महाविद्यालय खुलनेवाला है, यदि तुम्हे आना हो तो आ सकते हो। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं श्री पण्डितजीकी आज्ञा पाते ही आगरा चला गया और मोतीकटराकी धर्मशालामें ठहर गया। यहीं श्री गुरु पन्नालालजी बाकलीवाल भी आ गये। आप बहुत ही उत्तम लेखक तथा संस्कृतके ज्ञाता थे। आपकी प्रकृति अत्यन्त सरल और परोपकाररत थी। मेरे तो प्राण ही थे-इनके द्वारा जो मेरा उपकार हुआ उसे इस जन्ममें नहीं भूल सकता | आप श्रीमान् स्वर्गीय पं. बलदेवदासजीसे सर्वार्थसिद्धिका अभ्यास करने लगे। मैं आपके साथ जाने लगा।
उन दिनों छापेका प्रचार जैनियोंमें न था। मुद्रित पुस्तकका लेना महान् अनर्थका कारण माना जाता था, अतः हाथसे लिखे हुए ग्रन्थोंका पठन-पाठन होता था। हम भी हाथकी लिखी सर्वार्थसिद्धि पर ही अभ्यास करते थे।
___पण्डितजी महाराजको मध्याह्नोपरान्त ही अध्ययन करानेका अवकाश मिलता था। गर्मी के दिन थे। पण्डितजीके घर जानेमें प्रायः पत्थरोंसे पटी हुई सड़क मिलती थी। मोतीकटरासे पण्डितजीका मकान एक मीलसे अधिक दूर था, अतः मैं जूता पहिने ही हस्तलिखित पुस्तक लेकर पण्डितजीके घरपर जाता था। यद्यपि इसमें अविनय थी और हृदयसे ऐसा करना नहीं चाहता था, परन्तु निरुपाय था। दुपहरी में यदि पत्थरों पर चलूँ तो पैरोंमें कष्ट हो, न जाऊँ तो अध्ययनसे वञ्चित रहूँ मैं दुविधामें पड़ गया। लाचार, अन्तरात्माने यही उत्तर दिया कि अभी तुम्हारी छात्रावस्था है, अध्ययनको मुख्यता रक्खो।
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