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महान् मेला
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श्रावकोंके थे। पठन-पाठनका जितना सुअवसर यहाँ था उतना अन्यत्र न था। एक जैन पाठशाला मनिहारोंके रास्तेमें थी। श्रीमान् पं. नानूलालजी शास्त्री, श्रीमान् पं. कस्तूरचन्द्रजी शास्त्री, श्रीमान् पं. जवाहरलालजी शास्त्री तथा श्रीमान् पं. इंद्रलालजी शास्त्री आदि इसी पाठशाला द्वारा गणनीय विद्वानोंमें हुए। कहाँ तक लिखू ? बहुतसे छात्र अभ्यास कर यहाँसे पण्डित बन प्रखर विद्वान् हो जैनधर्मका उपकार कर रहे हैं।
यहाँपर उन दिनों जब कि मैं पढ़ता था, श्रीमान् स्वर्गीय अर्जुनदासजी भी एन्ट्रेंसमें पढ़ते थे। आपकी अत्यन्त प्रखर बुद्धि थी। साथ ही आपको जातिके उत्थानकी भी प्रबल भावना थी। आपने एक सभा स्थापित की थी। मैं भी उसका सदस्य था। आपका व्याख्यान इतना प्रभावक होता था कि जनता तत्काल ही आपके अनुकूल हो जाती थी। आपके द्वारा एक पाठशाला भी स्थापित हुई थी। उसमें पठन-पाठन बहुत सुचारुरूपसे होता था। उसकी आगे चलकर अच्छी प्रख्याति हुई। कुछ दिनोंके बाद उसको राज्यसे भी सहायता मिलने लगी। अच्छे-अच्छे छात्र उसमें आने लगे।
आपका ध्येय देशोद्धारका विशेष था, अतः आपका काँग्रेस संस्थासे अधिक प्रेम हो गया। आपका सिद्धांत जैनधर्मके अनुकूल ही राजनैतिक क्षेत्रमें कार्य करनेका था। इससे आप विरोधीके सामने कायरताका बर्ताव करना अच्छा नहीं समझते थे। आप अहिंसाका यथार्थ स्वरूप समझते थे। बहुधा बहुतसे दयाको ही अहिंसा मान बैठते हैं, पर आपको अहिंसा और दयाके मार्मिक भेदका अनुगम था।
महान् मेला उन दिनों जयपुरमें एक महान् मेला हुआ था, जिसमें भारतवर्षके सभी प्रान्तके विद्वान् और धनिक वर्ग तथा सामान्य जनताका बृहत्समारोह हुआ था। गायक भी अच्छे-अच्छे आये थे। मेलाको भरानेवाले श्री स्वर्गीय मूलचन्द्रजी सोनी अजमेरवाले थे। वह बहुत ही धनाढ्य और सद्गृहस्थ थे। आपके द्वारा ही तेरापन्थका विशेष उत्थान हुआ-शिखरजी में तेरापन्थी कोठीका विशेष उत्थान आपके ही सत्प्रयत्नसे हुआ। अजमेरमें आपके मन्दिर और नसियाँजी देखकर आपके वैभवका अनुमान होता है। आप केवल मन्दिरोंके ही उपासक न थे, पण्डितोंके भी बड़े प्रेमी थे। श्रीमान स्वर्गीय पण्डित बलदेवदासजी आपहीके मुख्य पण्डित थे। जब पण्डितजी अजमेर जाते और आपकी दुकानपर
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