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________________ 36 मेरी जीवनगाथा अभ्यास किया और एक अध्याय श्रीसर्वार्थसिद्धिका भी अध्ययन किया। इतना पढ़ बम्बईकी परीक्षामें बैठ गया । जब कातन्त्र - व्याकरणका प्रश्नपत्र लिख रहा था, तब एक पत्र मेरे ग्रामसे आया। उसमें लिखा था कि तुम्हारी स्त्रीका देहावसान हो गया। मैंने मन ही मन कहा - 'हे प्रभो ! आज मैं बन्धनसे मुक्त हुआ । यद्यपि अनेक बन्धनोंका पात्र था, परन्तु वह बन्धन ऐसा था, जिससे मनुष्यकी सर्व सुधबुध भूल जाती है।' पत्रको पढ़ते देखकर श्रीजमुनालालजी मन्त्रीने कहा - 'प्रश्नपत्र छोड़कर पत्र क्यों पढ़ने लगे ?' मैंने उत्तर दिया कि 'पत्र पर लिखा था- ' जरूरी पत्र है।' उन्होंने पत्रको माँगा मैंने दे दिया। पढ़कर उन्होंने समवेदना प्रकट की और कहा कि - 'चिन्ता मत करना, प्रश्नपत्र सावधानीसे लिखना, हम तुम्हारी फिरसे शादी कर देवेंगे।' मैंने कहा- 'अभी तो प्रश्नपत्र लिख रहा हूँ, बादमें सर्व व्यवस्था आपको श्रवण कराऊँगा ।' अन्तमें सब व्यवस्था उन्हें सुना दी और उसी दिन श्रीबाईजीको एक पत्र सिमरा दिया एवं सब व्यवस्था लिख दी । यह भी लिख दिया कि 'अब मैं निःशल्य होकर अध्ययन करूँगा । इतने दिनसे पत्र नहीं दिया सो क्षमा करना ।' यह जयपुर है जयपुर एक महान् नगर है । मैंने तीन दिन पर्यन्त श्री जिन मन्दिरोंके दर्शन किये तथा तीन दिन पर्यन्त शहरके बाह्य उद्यानमें जो जिन-मन्दिर थे उनके दर्शन किये, बहुत शान्त भाव रहे । यहाँ पर बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् उन दिनों थे—‘श्रीमान् पं. मोतीलालजी तथा श्रीमान् पं. गुलजीकाठ जो ५० वर्षके होंगे। श्रीमान् पण्डित चिम्मनलालजी भी उस समय थे जो कि वक्ता थे और सभामें संस्कृत ग्रंथोंका ही प्रवचन करते थे । आपकी कथनशैली इतनी आकर्षक थी कि जो श्रोता आपका एक बार शास्त्र श्रवण कर लेता था उसे स्वाध्यायकी रुचि हो जाती थी। आपके प्रवचन को जो बराबर श्रवण करता था वह दो या तीन वर्षमें जैनधर्मका धार्मिक तत्त्व समझनेका पात्र हो जाता था। आपके शास्त्र-प्रवचनमें प्रायः मन्दिर भर जाता था । कहाँ तक आपके गुणोंकी प्रशंसा करें ? आपसे वक्ता जैनियोंमें आप ही थे । आप वक्ता ही न थे, सन्तोषी भी थे । आपके पक्के गोटेकी दुकान होती थी । आप भोजनोपरान्त ही दुकानपर जाते थे । जयपुरमें इन दिनों विद्वानोंका ही समागम न था, किन्तु बड़े-बड़े गृहस्थोंका भी समागम था, जो अष्टमी चतुर्दशीको व्यापार छोड़कर मन्दिरमें धर्मध्यानद्वारा समयका सदुपयोग करते थे। सैकड़ों घर शुद्ध भोजन करनेवाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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