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चिरकांक्षित जयपुर
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थे। उन्होंने मेरा सब प्रबन्ध कर दिया। यहाँ पर औषधालयमें जो वैद्यराज दौलतरामजी थे, वह बहुत ही सुयोग्य थे। मैंने कहा-महाराज मैं तिजारीसे बहुत दुःखी हूँ| कोई ऐसी औषधि दीजिये जिससे मेरी बीमारी चली जावे। वैद्यराजने मूंगके बराबर गोली दी और कहा-'आज इसे खा लो तथा ३४ दूधकी 5-चावल डालकर खीर बनाओ और जितनी खाई जाये खाओ। कोई विकल्प न करना। मैंने दिनभर खीर खाई। पेट खूब भर गया। रात्रिको आठ बजे वमन हो गया। उसी दिनसे रोग चला गया। पन्द्रह दिन केकड़ीमें रहकर जयपुर चला गया।
चिरकांक्षित जयपुर जयपुरमें ठोलियाकी धर्मशालामें ठहर गया। यहाँ पर जमुनाप्रसादजी कालासे मेरी मैत्री हो गई। उन्होंने श्रीवीरेश्वर शास्त्रीके पास, जो कि राज्यके मुख्य विद्वान् थे, मेरा पढ़नेका प्रबन्ध कर दिया। मैं आनन्दसे जयपुरमें रहने लगा। यहाँ पर सब प्रकारकी आपत्तियोंसे मुक्त हो गया।
एक दिन श्री जैनमन्दिरके दर्शन करनेके लिए गया। मन्दिरके पास श्रीनेकरजीकी दुकान थी। उनका कलाकन्द् भारतमें प्रसिद्ध था। मैंने एक पाव कलाकन्द लेकर खाया। अत्यन्त स्वाद आया। फिर दूसरे दिन भी एक पाव खाया। कहनेका तात्पर्य यह है कि मैं बारह मास जयपुर में रहा, परन्तु एक दिन भी उसका त्याग न कर सका । अतः मनुष्योंको उचित है कि ऐसी प्रकृति न बनावें जो कष्ट उठाने पर भी उसे त्याग न सकें। जयपुर छोड़नेके बाद ही वह आदत छूट सकी।
एक बात यहाँ और लिखनेकी है कि अभ्याससे सब कार्य हो सकते हैं। यहाँ पर पानीके गिलासको मुखसे नहीं लगाते । ऊपरसे ही धार डालकर पानी पीनेका रिवाज है। मुझे उस तरह पीनेका अभ्यास न था, अतः लोग बहुत लज्जित करते थे। कहते थे कि 'तुम जूंठा गिलास कर देते हो।' मैं कहता था कि 'आपका कहना ठीक है पर बहुत कोशिश करता हूँ तो भी इस कार्य उत्तीर्ण नहीं हो पाता।' कहनेका तात्पर्य यह है कि मैंने बारह वर्ष जल पीनेका अभ्यास किया। अन्तमें उस कार्यमें उत्तीर्ण हो गया। अतः मनुष्यको उचित है कि वह जिस कार्यकी सिद्धि करना चाहे उसे आमरणान्त न त्यागे।
यहाँपर मैंने १२ मास रहकर श्रीवीरेश्वरजी शास्त्रीसे कातन्त्र-व्याकरणका अभ्यास किया और श्रीचन्द्रप्रभचरित्र भी पाँच सर्ग पढ़ा। श्रीतत्त्वार्थसूत्रजीका
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