SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34 मेरी जीवनगाथा कहा- 'बहुत अच्छा विचार है, कोई चिन्ता मत करो, सब प्रबन्ध कर दूँगा, जिस किसी पुस्तककी आवश्यकता हो, हमसे कहना ।' मैं आनन्दसे अध्ययन करने लगा और भाद्रमासमें रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा कातन्त्र-व्याकरणकी पञ्चसन्धिमें परीक्षा दी। उसी वर्ष बम्बई परीक्षालय खुला था। रिजल्ट निकला । मैं दोनों विषयमें उत्तीर्ण हुआ। साथमें पच्चीस रुपये इनाम भी मिला । समाज प्रसन्न हुई । श्रीमान् स्वर्गीय पंडित गोपालदासजी वरैया उस समय वहीं पर रहते थे । आप बहुत ही सरल तथा जैनधर्मके मार्मिक पण्डित थे, साथमें अत्यन्त दयालु भी थे। वह मुझसे बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि - 'तुम आनन्दसे विद्याध्ययन करो, कोई चिन्ता मत करो।' वह एक साहबके आफिसमें काम करते थे। साहब इनसे अत्यन्त प्रसन्न था । पण्डितजीने मुझसे कहा - 'तुम शामको मुझे विद्यालय आफिसमें ले आया करो, तुम्हारा जो मासिक खर्च होगा, मैं दूंगा। यह न समझना कि मैं तुम्हें नौकर समझँगा । मैं उनके समक्ष कुछ नहीं कह सका ।' परीक्षाफल देख कर देहलीके एक झवेरी लक्ष्मीचन्द्रजीने कहा कि 'दस रुपया मासिक हम बराबर देंगे, तुम अध्ययन करो।' मैं अध्ययन करने लगा किन्तु दुर्भाग्यका उदय इतना प्रबल था कि बम्बईका पानी मुझे अनुकूल न पड़ा। शरीर रोगी हो गया। गुरुजी और स्वर्गीय पं० गोपालदासजीने बहुत ही समवेदना प्रकट की। तथा यह आदेश दिया कि तुम पूना जाओ, तुम्हारा सब प्रबन्ध हो जावेगा । एक पत्र भी लिख दिया । मैं उनका पत्र लेकर पूना चला गया । धर्मशालामें ठहरा। एक जैनीके यहाँ भोजन करने लगा । वहाँकी जलवायु सेवन करनेसे मुझे आराम हो गया । पश्चात् एक मास बाद मैं बम्बई आ गया । यहाँ कुछ दिन ठहरा कि फिरसे ज्वर आने लगा । श्री गुरुजी ने मुझे अजमेरके पास केकड़ी है, वहाँ भेज दिया । केकड़ीमें पं० पन्नालालजी, साहब रहते थे। योग्य पुरुष थे । आप बहुत ही दयालु और सदाचारी थे । आपके सहवाससे मुझे बहुत ही लाभ हुआ । आपका कहना था कि 'जिसे आत्म-कल्याण करना हो वह जगत्‌के प्रपञ्चोंसे दूर रहे।' आपके द्वारा यहाँ पर एक पाठशाला चलती थी । मैं श्रीमान् रानीवालोंकी दुकानपर ठहर गया। उनके मुनीम बहुत योग्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy