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विद्याध्ययनका सुयोग
खुरजाके निवासी है। आजीविकाके निमित्त बम्बईमें रहते हैं। दलाली करते हैं, तुम्हें मन्दिरमें देख स्वयमेव हमारे यह परिणाम हो गये कि इस जीवकी रक्षा करनी चाहिये । आप न तो हमारे सम्बन्धी हैं। और न हम तुमको जानते ही हैं तुम्हारे आचारादिसे भी अभिज्ञ नहीं हैं फिर भी हमारे परिणामोंमें तुम्हारी रक्षाके भाव हो गये। इससे अब तुम्हें सब तरहकी चिन्ता छोड़ देनी चाहिए तथा ऊपर भी जिनेन्द्रदेवके प्रतिदिन दर्शनादिकर स्वाध्यायमें उपयोग लगाना चाहिये। तुम्हारी जो आवश्यकता होगी हम उसकी पूर्ति करेंगे।' इत्यादि वाक्यों द्वारा मुझे सन्तोष कराके चले गये।
विद्याध्ययनका सुयोग मैंने आनन्दसे भोजन किया। कई दिनसे चिन्ताके कारण निद्रा नहीं आई थी, अतः भोजन करनेके अनन्तर सो गया। तीन घण्टे बाद निद्रा भंग हुई, मुख मार्जन कर बैठा ही था कि इतनेमें बाबा गुरुदयालजी आ गये और १०० कापियाँ देकर कह गये कि इन्हें बाजारमें जाकर फेरीमें बेच आना। छह आनेसे कम में न देना। यह पूर्ण हो जाने पर मैं और ला दूंगा। उन कापियोंमें रेशम आदि कपड़ोंके नमूने विलायतसे आते थे।
मैं शामको बाजारमें गया और एक ही दिनमें बीस कापी बेच आया। कहनेका यह तात्पर्य है कि छ: दिनमें सब कापियाँ बिक गई और उनकी बिक्रीके मेरे पास ३१। =) हो गये। अब मैं एकदम निश्चिन्त हो गया।
यहाँ पर मन्दिरमें एक जैन पाठशाला थी। जिसमें श्री जीवाराम शास्त्री गुजराती अध्यापक थे (वे संस्कृतके प्रौढ़ विद्वान् थे। ३०) मासिक पर २ घंटा पढ़ाने आते थे। साथमें श्री गुरुजी पन्नालालजी वाकलीवाल सुजानगढ़वाले ऑनरेरी धर्मशिक्षा देते थे। मैंने उनसे कहा-'गुरुजी ! मुझे भी ज्ञानदान दीजिये।' गुरुजीने मेरा परिचय पूछा, मेंने आनुपूर्वी अपना परिचय उनको सुना दिया। वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि तुम संस्कृत पढ़ो।
उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर कातन्त्र-व्याकरण श्रीयुत शास्त्री जीवारामजीसे पढ़ना प्रारम्भ कर दिया । और रत्नकरण्डश्रावकाचार जी पण्डित पन्नालालजीसे पढ़ने लगा। मैं पण्डितजी को गुरुजी कहता था।
बाबा गुरुदयालजीसे मैंने कहा-'बाबाजी ! मेरे पास ३१/ =) कापियोंके आ गये। १०) आप दे गये थे। अब मैं भाद्रमास तकके लिये निश्चिन्त हो गया। आपकी आज्ञा हो तो मैं संस्कृत अध्ययन करने लगूं।' उन्होंने हर्षपूर्वक
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