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मेरी जीवनगाथा
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कहा कि 'मिट्टी खोदकर इन औरतोंकी टोकनीमें भरते आओ। तीन आने शामको मिल जावेंगे। मैंने मिट्टी खोदना आरम्भ किया और एक टोकनी किसी तरहसे भर कर उठा दी, दूसरी टोकनी नहीं भर सका। अन्तमें गेंतीको वहीं पटक कर रोता हआ आगे चल दिया। मेटने दया कर बुलाया-'रोते क्यों हो ? मिट्टीको ढोओ, दो आना मिल जावेंगे।' गरज वह भी न बन पड़ा, तब मेटने कहा-'आपकी इच्छा सो करो। मैंने कहा-'जनाब, बन्दगी, जाता हूँ।' उसने कहा-'जाइये, यहाँ तो हट्टे-कट्टे पुरुषोंका काम है।'
___ उस समय अपने भाग्यके गुणगान करता हुआ आगे बढ़ा। कुछ दिन बाद ऐसे स्थान पर पहुंचा, जहाँ पर जिनालय था। जिनालयमें श्री जिनेन्द्रदेवके दर्शन किये। पश्चात् यहाँसे गजपन्थाके लिए प्रस्थान कर दिया और श्री गजपन्था पहुँच भी गया। मार्गमें कैसे-कैसे कष्ट उठाये उनका इसीसे अनुमान कर लो कि जो ज्वर एक दिन बाद आता था वह अब दो दिन बाद आने लगा। इसको हमारे देशमें तिजारी कहते हैं। उसमें इतनी ठण्ड लगती है कि चार सोड़रोंसे भी नहीं जाती। पर पासमें एक भी नहीं थी। साथमें पकनूँ खाज हो गई, शरीर कृश हो गया। इतना होने पर भी प्रतिदिन २० मील चलना और खानेको दो पैसेका आटा। वह भी जवारीका और कभी बाजरेका और वह भी बिना दाल शाकका । केवल नमककी कंकरी शाक थी। घी क्या कहलाता है ? कौन जाने, उसके दो माससे दर्शन भी न हुए थे। दो माससे दालका भी दर्शन न था। किसी दिन रुखी रोटी बनाकर रक्खी और खानेकी चेष्टा की कि तिजारी महारानीने दर्शन देकर कहा-'सो जाओ, अनधिकार चेष्टा न करो, अभी तुम्हारे पापकर्मका उदय है, समतासे सहन करो।'
पापके उदयकी पराकाष्ठाका उदय यदि देखा तो मैंने देखा। एक दिनकी बात है-सघन जंगलमें, जहाँ पर मनुष्योंका संचार न था, एक छायादार वृक्षके नीचे बैठ गया। वहीं बाजरेके चूनकी लिट्टी लगाई, खाकर सो गया। निद्रा भंग हुई, चलनेको उद्यमी हुआ, इतनेमें भयंकर ज्वर आ गया। बेहोश पड़ गया। रात्रिके नौ बजे होश आया। भयानक वनमें था। सुध-बुध भुल गया। रात्रि भर भयभीत अवस्थामें रहा। किसी तरह प्रातःकाल हुआ। श्री भगवान्का स्मरण कर मार्गमें अनेक कष्टोंकी अनुभूति करता हुआ, श्री गजपन्थाजीमें पहुँच गया और आनन्दसे धर्मशाला में ठहर गया।
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