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________________ गजपन्थासे बम्बई 31 गजपन्थासे बम्बई यहीं पर एक आरवीके सेठ ठहरे थे। प्रातःकाल उनके साथ पर्वतकी वन्दनाको चला गया। आनन्दसे यात्रा समाप्त हुई। धर्मकी चर्चा भी अच्छी तरहसे हुई। आपने कहा-'कहाँ जाओगे ?' मैंने कहा-'श्री गिरिनारजीकी यात्राको जाऊँगा।' कैसे जाओगे ?' पैदल जाऊँगा।' उन्होंने मेरे शरीरकी अवस्था देखकर बहुत ही दयाभावसे कहा-'तुम्हारा शरीर इस योग्य नहीं' मैंने कहा-'शरीर तो नश्वर है एक दिन जावेगा ही कुछ धर्मका कार्य इससे लिया जावे।' वह हँस पड़े और बोले-'अभी बालक हो, 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् शरीर धर्मसाधनका आद्य कारण है, अतः इसको धर्मसाधनके लिए सुरक्षित रखना चाहिए। मैंने कहा-'रखनेसे क्या होता है ? भावना हो तब तो यह बाह्य कारण हो सकता है। इसके बिना यह किस कामका ?' परन्तु वह तो अनुभवी थे, हँस गये, बोले-'अच्छा इस विषयमें फिर बातचीत होगी, अब तो चलें, भोजन करें, आज आपको मेरे ही डेरेमें भोजन करना होगा। मैंने बाह्यसे तो जैसा लोगोंका व्यवहार होता है वैसा ही उनके साथ किया, पर अन्तरंगसे भोजन करना इष्ट था। स्थानपर आकर उनके यहाँ आनन्दसे भोजन किया। तीन मासमें मार्गके खेदसे खिन्न था तथा जबसे माँ और स्त्रीको छोड़ा, मड़ावरासे लेकर मार्गमें आज वैसा भोजन किया। दरिद्रको निधि मिलनेमें जितना हर्ष होता है उससे भी अधिक मुझे भोजन करनेमें हुआ। भोजनके अनन्तर वह मन्दिरके भण्डारमें द्रव्य देनेके लिए गये। पाँच रुपये मुनीमको देकर उन्होंने जब रसीद ली तब मैं भी वहीं बैठा था। मेरे पास केवल एक आना था और वह इसलिए बच गया था कि आजके दिन आरवीके सेठके यहाँ भोजन किया था। मैंने विचार किया था कि यदि आज अपना निजका भोजन करता तो यह एक आना खर्च हो जाता और ऐसा मधुर भोजन भी नहीं मिलता, अतः इसे भण्डारमें दे देना अच्छा है। निदान, मैंने वह एक आना मुनीमको दे दिया। मुनीमने लेने में संकोच किया। सेठजी भी हँस पड़े और मैं भी संकोचवश लज्जित हो गया, परन्तु मैंने अन्तरंगसे दिया था, अतः उस एक आनाके दानने मेरा जीवन पलट दिया। सेठजी कपड़ा खरीदने बम्बई जा रहे थे। आरवीमें उनकी दुकान थी। उन्होंने मुझसे कहा-'बम्बई चलो, वहाँसे गिरिनारजी चले जाना।' मैंने कहा-'मैं तो पैदल यात्रा करूँगा। यद्यपि साधन कुछ भी न था-साधनके नाम पर एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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