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कर्मचक्र
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ही निपुण थे। वे मकान, ग्राम आदिकी दलाली करते थे। अत्यन्त उदार थे। हजारों रूपये मासिक अर्जन करते थे। कृपणताका तो उनके पास अंश ही नहीं था। अस्तु, यहाँसे श्री सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिके लिए उत्सुकतापूर्वक चल पड़ा। बीचमें एलचपुर मिला। यहाँ जिनमन्दिरोंके दर्शन कर दूसरे दिन मुक्तागिरि पहुँच गया। क्षेत्रकी शोभा अवर्णनीय है। सर्वतः वनोंसे वेष्टित पर्वत हैं। पर्वतके ऊपर अनेक जिनालय हैं। नीचे भी कई मन्दिर और धर्मशालाएँ हैं। तपोभूमि है। परन्तु अब तो न वहाँ कोई त्यागी है न साधु । जो अन्य क्षेत्रोंकी व्यवस्था है वही व्यवस्था यहाँकी है। सानन्द वन्दना की।
कर्म-चक्र ___ पासमें पचास रुपये मात्र रह गये । कपड़े विवर्ण हो गये। शरीरमें खाज हो गई। एक दिन बाद ज्वर आने लगा। सहायी कोई नहीं। केवल दैव ही सहायी था। क्या करूँ ? कुछ समझमें नहीं आता था-कर्त्तव्यविमूढ़ हो गया। कहाँ जाऊँ ? यह भी निश्चय नहीं कर सका। किससे अपनी व्यथा कहूँ ? यह भी समझमें नहीं आया। कहता भी तो सुननेवाला कौन था ? खिन्न होकर पड़ गया। रात्रिको स्वप्न आया--'दःख करनेसे क्या लाभ ?' कोई कहता है-'गिरिनारको चले जाओ।' 'कैसे जावें ? साधन तो कुछ है नहीं... मैंने कहा। वही उत्तर मिला-'नारकी जीवोंकी अपेक्षा तो अच्छे हो।'
प्रातःकाल हुआ। श्री सिद्धक्षेत्रकी वन्दना कर वैतूल नगरके लिये चल दिया। तीन कोश चलकर एक हाट मिली। वहाँ एक स्थान पर पत्तेका जुआ हो रहा था। १) के ५) मिलते थे। हमने विचार किया-'चलो ५) लगा दो २५) मिल जावेंगे, फिर आनन्दसे रेलमें बैठकर श्री गिरिनारकी यात्रा सहजमें हो जावेगी। इत्यादि। १) में ५) मिलेंगे इस लोभसे ३) लगा दिये। पत्ता हमारा नहीं आया। ३) चले गये। अब बचे दो रुपया सो विचार किया कि अब गलती न करो, अन्यथा आपत्तिमें फँस जाओगे। मनको संतोषकर वहाँसे चल दिया। किसी तरह कष्टोंको सहते हुए वैतूल पहुंचे।
उन दिनों अन्न सस्ता था। दो पैसेमें ऽ।। जवारीका आटा मिल जाता था। उसकी रोटी खाते हुए मार्ग तय करते थे। जब बैतूल पहुंचे, तब ग्रामके बाहर सड़कपर कुली लोग काम कर रहे थे। हमने विचार किया कि यदि हम भी इस तरहका काम करें तो हमें भी कुछ मिल जाया करेगा। मेटसे कहा-'भाई हमको भी लगा लो।' दयालु था, उसने हमको एक गेंती दे दी और
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