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मेरी जीवनगाथा
'परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं दु विज्जदे जस्स !
वि सो जाणदि अप्पाणयं दु सव्वागमधरो वि ।।'
जो सर्वागमको जाननेवाला है, रागादिकोंका अंशमात्र भी यदि उसके विद्यमान है तो वह आत्माको नहीं जानता है, जो आत्माको नहीं जानता है वह जीव और अजीवको नहीं जानता, जो जीव- अजीवको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? कहनेका तात्पर्य यह है कि आगमाभ्यास ही जीवादिकोंके जाननेमें मुख्य कारण है और आगमाभासका अभ्यास ही जीवादिकको अन्यथा जाननेमें कारण है । जिनको आत्म-कल्याणकी लालसा है वे आप्तकथित आगमका अभ्यास करें। विशेष कहाँ तक लिखें ? क्षेत्रोंपर ज्ञानके साधन कुछ नहीं, केवल रुपये इकट्ठे करनेके साधन हैं । कल्पना करो, यह धन यदि एकत्रित होता रहे और व्यय न हो तो अन्तमें नहींके तुल्य हुआ । अस्तु, इस कथासे क्या लाभ ? यहाँ चार दिन रहा ।
मुक्तागिरि
चार दिन बाद यहाँसे चल दिया, बीचमें कामठीके जैन मन्दिरोंके दर्शन करता हुआ नागपुर पहुँचा । यहाँ पर अनेक जैन मन्दिर हैं। उनमें कितने ही बुन्देलखण्डसे आये हुए परवारोंके हैं। ये सर्व तेरापन्थी आम्नायवाले हैं। मन्दिरोंके पास एक धर्मशाला है । अनेक जिनालय दक्षिणवालोंके भी हैं जो कि बीसपन्थी आम्नायके हैं ।
यहाँ पर रामभाऊ पांडे एक योग्य पुरुष थे। आप बीसपन्थी आम्नायके भट्टारकके चेले थे। परन्तु आपका प्रेम तत्त्वचर्चासे था, अत: चाहे तेरापन्थी आम्नायका विद्वान् हो, चाहे बीसपन्थी आम्नायका, समानभावसे आप उन विद्वानोंका आदर करते थे । यहाँ दो या तीन दिन रहकर मैंने अमरावतीको प्रस्थान कर दिया। बीचमें वर्धा मिला। यहाँ भी जिनमन्दिरोंका समुदाय है, उनके दर्शन किये ।
कई दिवसोंके बाद अमरावती पहुँचा । यहाँ पर भी बुन्देलखण्डसे आये हुए परवारोंके अनेक घर हैं जो कि तेरापन्थ आम्नायके माननेवाले हैं। मन्दिरोंके पास एक जैनधर्मशाला है । यहाँ पर श्री सिंघई पन्नालालजी रहते थे। उनके यहाँ नियम था कि जो यात्रीगण बाहरसे आते थे, उन सबको भोजन कराये बिना नहीं जाने देते थे । यहाँ पर उनके मामा नन्दलालजी थे, जो बहुत
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