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रामटेक
'आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैर्जिनधर्मः ।।' वास्तविक प्रभावना तो यह है कि अपनी परिणति, जो अनादि कालसे परको आत्मीय मान कलुषित हो रही है तथा परमें निजत्वका अवबोध कर विपर्यय ज्ञानवाली हो रही है एवं परपदार्थों में रागद्वेष कर मिथ्याचारित्रमयी हो रही है, उसे आत्मीय श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रके द्वारा ऐसी निर्मल बनानेका प्रयत्न किया जाय, जिससे इतर धर्मावलम्बियोंके हृदयमें स्वयमेव समा जावे कि धर्म तो यह वस्तु है। इसीको निश्चय प्रभावना कहते हैं। अथवा ऐसा दान करो, जिससे साधारण लोगोंका भी उपकार हो। ऐसे विद्यालय खोलो, जिनसे यथाशक्ति सबको ज्ञान-लाभ हो। ऐसे औषधालय खोलो, जिनमें शुद्ध औषधोंका भण्डार हो। ऐसे भोजनालय खोलो, जिनसे शुद्ध भोजनका प्रबन्ध हो । अनाथोंको भोजन दो। अनुकम्पासे प्राणीमात्रको दानका निषेध नहीं। अभयदानादि देकर प्राणियोंको निर्भय बना दो। ऐसा तप करो, जिसे देखकर कटरसे कट्टर विरोधियोंकी तपमें श्रद्धा हो जावे। श्री जिनेन्द्रदेवकी ऐसे ठाटबाटसे पूजा करो, जो नास्तिकोंके चित्तमें भी आस्तिक्य भावोंका संचार करे। इसका नाम व्यवहारमें प्रभावना है। श्री समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है कि
'अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना।।' अज्ञानरूपी अन्धकारकी व्याप्तिसे जगत् आच्छन्न है, उसे यथाशक्ति दूरकर जिनशासनके माहात्म्यका प्रकाश करना, इसीका नाम सच्ची प्रभावना है। संसारमें अनादि कालसे मोहके वशीभूत होकर प्राणियोंने नाना प्रकारके धर्मोंका प्रचार कर रखा है। कहाँ तक इसका वर्णन किया जाय ? जीवबध करके भी लोग उसे धर्म मानने लगे। जिसे अच्छे-अच्छे लोग पुष्ट करते हैं और प्रमाण देते हैं कि शास्त्रोंमें लिखा है। उसे यहाँ लिखकर मैं आप लोगोंका समय नहीं लेना चाहता।
संसारमें जो मिथ्या प्रचार फैल रहा है उसमें मूल कारण रागद्वेषकी मलिनतासे जो कुछ लिखा गया वह साहित्य है। वही पुस्तकें कालान्तरमें धर्मशास्त्रके रूपमें मानी जाने लगीं। लोग तो अनादिकालसे मिथ्यात्वके उदयमें शरीरको ही आत्मा मानते हैं। जिनको अपना ही बोध नहीं वे परको क्या जानें ? जब अपना पराया ज्ञान नहीं तब कैसा सम्यग्दृष्टि ? यही श्री समयसारमें लिखा है
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