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मेरी जीवनगाथा
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हो जाती है। एवं श्री भगवान्के गुणोंका रुचिपूर्वक स्मरण करनेसे स्वयंमेव जीवोंके शुभ परिणामोंकी उत्पत्ति होती है, फिर भी व्यवहारमें ऐसा कथन होता है कि भगवान्ने शुभ परिणाम कर दिये । भगवान्को पतितपावन कहते हैं अर्थात् जो पापियोंका उद्धार करें उनका नाम पतितपावन है .... यह कथन भी निमित्तकारणकी अपेक्षा है । निमित्तकारणोंमें भी उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण हो जाता है । एवं जो जीव पतित है वह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान् निमित्त हैं। यदि वह शुभ परिणाम न करे तो निमित्त नहीं । वस्तुकी मर्यादा यही है परन्तु उपचारसे कथन-शैली नानाप्रकारकी है । 'यथा कुलदीपकोऽयं बालकः, माणवकः सिंहः । विशेष कहाँ तक लिखें ? आत्माकी अचिन्त्य शक्ति है । वह मोहकर्मके निमित्तसे विकासको प्राप्त नहीं होती। मोहकर्मके उदयमें यह जीव नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करता है। यद्यपि वे कल्पनाएँ वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा तो सत् हैं परन्तु कर्मोदयके बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत् हैं । पुद्गल द्रव्यकी भी अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुणोंको प्रकट नहीं होने देता और इसीमें कार्तिकेय स्वामीने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है कि
"कापि अपुव्वा दिस्सइ पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ।"
‘अर्थात् पुद्गलद्रव्यमें कोई अपूर्व शक्ति है जिससे कि जीवका स्वभावभूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो जाता है।' यह बात असत्य नहीं । जब आत्मा मदिरापान करता है तब उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । मदिरा पुद्गलद्रव्य ही तो है । अस्तु,
यद्यपि जो आपके गुणोंका अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध संसारका ही तो कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसारका कारण जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता । चारित्रमोहके उदयमें ज्ञानी जीवके रागादिक भाव होते हैं, परन्तु उनमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं । तथाहि
'कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् ।
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अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।।'
'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्माका स्वभाव नहीं है उसी प्रकार कर्तापन भी आत्माका स्वभाव नहीं है । अज्ञानसे ही यह आत्मा कर्ता बनता है ।
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